उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
कई आवाज़ें–होती तो ज़रूर, लेकिन अब न होगी। आप वाकई दिलेर आदमी हैं।
ख्वाज़ा–यहाँ आप कहाँ ठहरे हुए हैं? मैं आपसे मिलूँगा।
चक्रधर–आप क्यों तक़लीफ़ उठाएँगे, मैं खुद हाज़िर हूँगा।
ख्वाज़ा महमूद ने चक्रधर को गले लगाकर रुख़सत किया। इधर उस वक़्त गाय की पगहिया खोल दी गई। वह जान लेकर भागी। और लोग भी इस ‘नौजवान’ की ‘हिम्मत’ और ज़वाँमर्दी की तारीफ़ करते हुए चले।
चक्रधर को आते देखकर यशोदानन्दन अपने कमरे से निकल आये और उन्हें छाती से लगाते हुए बोले–भैया, आज तुम्हारा धैर्य और साहस देखकर मैं दंग रह गया। तुम्हें देखकर मुझे अपने ऊपर लज्जा आ रही है। तुमने आज हमारी लाज रख ली। अगर यहाँ क़ुर्बानी हो जाती, तो हम मुँह दिखाने लायक भी न रहते।
एक बूढ़ा–आज तुमने वह काम कर दिखाया, जो सैकड़ों आदमियों के रक्तपात से भी न होता!
चक्रधर–मैंने कुछ भी नहीं किया। यह उन लोगों की शराफ़त थी कि उन्होंने अनुनय-विनय सुन ली।
यशोदा०–अरे भाई, रोने का भी तो ढंग होता है। अनुनय-विनय हमने भी सैकड़ों ही बार की, लेकिन हर दफ़े गुत्थी उलझती ही गई। आइए आप के घाव की मरहम-पट्टी तो हो जाए!
चक्रधर को कमरे में बैठाकर यशोदानन्दन ने घर में जाकर अपनी स्त्री वागीश्वरी से कहा–आज मेरे एक दोस्त की दावत करनी होगी। भोजन खूब दिल लगाकर बनाना। अहिल्या, आज तुम्हारी पाक-परीक्षा होगी।
अहिल्या-वह कौन आदमी था दादा, जिसने मुसलमानों के हाथों से गाय की रक्षा की?
यशोदा०–वही तो मेरे दोस्त हैं, जिनकी दावत करने को कह रहा हूँ। बेचारे रास्ते में मिल गए। यहाँ सैर करने आए हैं। मंसूरी जाएँगे।
अहिल्या (वागीश्वरी से)–अम्माँ, ज़रा उन्हें अन्दर बुला लेना, हम उनके दर्शन करेंगे। दादा, मैं कोठे पर बैठी सब तमाशा देख रही थी। जब हिन्दुओं ने उन पर पत्थर फेंकना शुरू किया, तो ऐसा क्रोध आता था कि वहीं से फटकारूँ। बेचारे के सिर से खून निकलने लगा, लेकिन ज़रा भी न बोले। जब वह मुसलमानों के सामने आकर खड़े हुए तो मेरा कलेजा धड़कने लगा कि कहीं सब-के-सब उन पर टूट न पड़ें। बड़े ही साहसी आदमी मालूम होते हैं। सिर में चोट आई है क्या?
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