उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
वागीश्वरी ने मिठाई की तश्तरी सामने रखते हुए कहा–कुछ जलपान कर लो भैया, तुमने कुछ खाना भी तो नहीं खाया। तुम जैसे वीरों को सवा सेर से कम न खाना चाहिए। धन्य है वह माता, जिसने ऐसे बालक को जन्म दिया। अहिल्या, ज़रा गिलास में पानी तो ला। भैया जब तुम मुसलमानों के सामने अकेले खड़े थे, तो वह ईश्वर से तुम्हारी कुशल मना रही थी। जाने कितनी मनौतियाँ कर डालीं। कहाँ है वह माला, जो तूने गूँथी थी? अब पहनाती क्यों नहीं?
अहिल्या ने लजाते हुए काँपते हाथों से माला चक्रधर के गले में डाल दी, और आहिस्ता से बोली–क्या सिर में ज़्यादा चोट आयी?
चक्रधर–नहीं तो, बाबूजी ने ख्वामख्वाह पट्टी बँधवा दी।
वागीश्वर–जब तुम्हें चोट लगी, तब इसे इतना क्रोध आया था कि उस आदमी को पा जाती, तो मुँह नोच लेती। क्या करते हो, बेटा?
चक्रधर–अभी तो कुछ नहीं करता, पड़े-पड़े खाया करता हूँ, मगर जल्दी ही कुछ-न-कुछ करना ही पड़ेगा। धन से तो मुझे बहुत प्रेम नहीं है और मिल भी जाए, तो मुझे उसको भोगने के लिए दूसरों की मदद लेनी पड़े। हाँ, इतना अवश्य चाहता हूँ कि किसी का आश्रित होकर न रहना पड़े।
वागीश्वरी–कोई सरकारी नौकरी नहीं मिलती क्या?
चक्रधर–नौकरी करने की तो मेरी इच्छा ही नहीं है। मैंने पक्का निश्चय कर लिया है कि नौकरी न करूँगा। न मुझे खाने का शौक़ है, न पहनने का, न ठाट-बाट का; मेरा निर्वाह बहुत थोड़े में हो सकता है।
वागीश्वरी–और जब विवाह हो जाएगा, तब क्या करोगे?
चक्रधर–उस वक़्त सिर पर जो आएगी, देखी जाएगी। अभी से क्यों उसकी चिंता करूं?
वागीश्वरी–जलपान तो कर लो, या मिठाई भी नहीं खाते?
चक्रधर मिठाइयाँ खाने लगे। इतने में महरी ने आकर कहा–बड़ी बहूजी, मेरे लाल को रात से खाँसी आ रही है; तिल भर नहीं रुकती, दवाई दे दो।
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