उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
अहिल्या–अम्माँ, मुझे गालियाँ दोगी, तो मैं नीचे जा लेटूँगी, चाहे मच्छर भले ही नोंच खाएँ।
वागीश्वरी–अरे, तो मैं कौन-सी गाली दे रही हूँ। क्या ब्याह न करेगी? ऐसी अच्छा वर तुझे और कहाँ मिलेगा?
अहिल्या–तुम न मानोगी, लो मैं जाती हूँ।
वागीश्वरी–मैं दिल्लगी नहीं कर रही हूँ, सचमुच पूछती हूँ। तुम्हारी इच्छा हो, तो बातचीत की जाए, अपनी ही बिरादरी के हैं। कौन जाने, राजी हो जाएँ।
अहिल्या–सब बातें जानकर भी?
वागीश्वरी–टालो मत,दिल की बात साफ़-साफ़ कह दो।
अहिल्या–तुम मेरे दिल का हाल मुझसे अधिक जानती हो, फिर मुझसे क्यों पूछती हो?
वागीश्वरी–वह धनी नहीं हैं, याद रखो।
अहिल्या–मैं धन की लौंडी कभी नहीं रही।
वागीश्वरी–तो अब तुम्हें संशय में क्यों रखूँ। तुम्हारे बाबूजी तुमसे मिलाने ही के लिए इन्हें काशी से लाए हैं। इनके पास और कुछ हो, या न हो, हृदय अवश्य है। और ऐसा हृदय, जो बहुत कम लोगों के हिस्सों में आता है। ऐसा स्वामी पाकर तुम्हारा जीवन सफल हो जाएगा।
अहिल्या ने डबडबाई हुई आँखों से वागीश्वर को देखा, पर मुँह से कुछ न बोली। कृतज्ञता शब्दों में आकर शिष्टता का रूप धारण कर लेती है। उसका मौलिक रूप वही है, जो आँखों से बाहर निकलते हुए काँपता और लजाता है।
६
मुंशी वज्रधर उन रेल मुसाफ़िरों में थे, जो पहले गाड़ी में खड़े होने की जगह माँगते हैं, फिर बैठने की फ़िक्र करने लगते हैं और अन्त में सोने की तैयारी कर देते हैं। चक्रधर एक बड़ी रियासत के दीवान की लड़की को पढ़ाएँ और वह इस स्वर्ण-संयोग से लाभ न उठाएँ! यह क्योंकर हो सकता था। दीवान साहब को सलाम करने आने-जाने लगे। बातें करने में तो निपुण थे ही, दो-चार मुलाक़ातों में उनका सिक्का जम गया। इस परिचय ने ही शीघ्र मित्रता का रूप धारण किया। एक दिन दीवान साहब के साथ वह रानी जगदीशपुर के दरबार में पहुँचे और ऐसी लच्चेदार बातें कीं, अपनी तहसीलदारी को ऐसी डींग उड़ाई की रानीजी मुग्ध हो गईं! कोई क्या तहसीलदार करेगा! जिस इलाके में मैं था, वहाँ के आदमी आज तक मुझे याद करते हैं। डींग नहीं मारता, डींग मारने की मेरी आदत नहीं, लेकिन जिस इलाके में मुश्किल से ५० हज़ार वसूल होता था, उसी इलाके से साल के अन्दर मैंने दो लाख वसूल करके दिखा दिया और लुत्फ़ यह कि किसी को हिरासत में रखने या कुर्की करने की ज़रूरत नहीं पड़ी।
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