उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
ऐसे कार्य-कुशल आदमी की सभी जगह ज़रूरत रहती है। रानी ने सोचा, इस आदमी को रख लूँ, तो इलाके की आमदनी बढ़ जाए। ठाकुर साहब से सलाह की। यहाँ तो पहले ही से बातें सधी-बधी थीं। ठाकुर साहब ने रंग और भी चोखा कर दिया। उनके दोस्तों में यही ऐसे थे, जिस पर लौंगी की असीम कृपादृष्टि थी। दूसरी ही सलामी में मुंशीजी को २५ रुपये मासिक की तहसीलदारी मिल गई। मुँहमाँगी मुराद पूरी हुई। सवारी के लिए घोड़ा भी मिल गया। सोने में सुहागा हो गया।
अब मुंशीजी की पाँचों अँगुलियों घी में थीं। जहाँ महीने में एक बार भी महफ़िल न जमने पाती थी, वहाँ अब तीसों दिन जमघट होने लगा। इतने बड़े अहलकार के लिए शराब की क्या कमी; कभी इलाके पर चुपके से दस-बीस बोतलें ऐंठ लेते। बिना हींग-फिटकरी रंग चोखा हो जाता था। एक कहार भी नौकर रख लिया और ठाकुर साहब के घर से दो-चार कुर्सियाँ उठवा लाए। उनके हौसले बहुत ऊँचे न थे, केवल एक भले आदमी की भाँति जीवन व्यतीत करना चाहते थे कि इस नौकरी का कोई ठिकाना नहीं। रईसों का मिज़ाज़ एक-सा नहीं रहता। मान लिया, रानी साहब के साथ निभ ही गई, तो कितने दिन! राजा साहब आते ही पुराने नौकरों को निकाल बाहर करेंगे। जब दीवान ही न रहेंगे, तो मेरी क्या हस्ती? इसलिए उन्होंने पहले ही से नए राजा साहब के यहाँ आना-जाना शुरू कर दिया था। इनका नाम ठाकुर विशालसिंह था। रानी साहब के चचेरे देवर होते थे। उनके दादा दो भाई थे। बड़े भाई रियासत के मालिक थे। उन्हीं के वंशजों ने दो पीढ़ियों तक राज्य का आनन्द भोगा था। अब रानी ने निःसंतान होने के कारण विशालसिंह के भाग्य उदय हुए थे। दो-चार गाँव थे, उनके दादा को गुज़ारे के लिए मिले थे, उन्हीं को रेहन–बय करके इन लोगों ने ५० वर्ष काट दिए थे–यहाँ तक कि विशालसिंह के पास अब इतनी भी संपत्ति न थी कि गुज़र-बसर के लिए काफी होती। उस पर कुल-मर्यादा का पालन करना आवश्यक था। वह महारानी के पट्टीदार थे और इस हैसियत का निर्वाह करने के लिए उन्हें नौकर-चाकर, घोड़ा-गाड़ी, सभी कुछ रखना पड़ता था। अभी तक परम्परा की नक़ल होती चली आती थी। दशहरे के दिन उत्सव ज़रूर मनाया जाता, जन्माष्टमी के दिन ज़रूर धूमधाम होती।
प्रातःकाल था, माघ मास की ठण्ड पड़ रही थी। मुंशीजी ने गरम पानी से स्नान किया और चौकी से उतरे। मगर खड़ाऊँ उलटे रखे थे। कहार खड़ा था कि यह जाएँ, तो धोती छाँटूँ! मुंशीजी ने उलटे खड़ाऊँ देखे, तो कहार को डाँटा–तुमसे कितनी का बार कह चुका कि खड़ाऊँ सीधे रखा कर। तुझे याद क्यों नहीं रहता? बता, उलटे खड़ाऊँ रखे, तो इतना पीटूँगा कि तू भी याद करेगा।
कहार ने काँपते हुए हाथ से खड़ाऊँ सीधे कर दिये।
निर्मला ने हलवा बना रखा था। मुंशीजी आकर एक कुर्सी पर बैठ गए और जलता हुआ हलवा मुँह में डाल दिया। किसी तरह उसे निगल गए और आँखों से पानी पोंछते हुए बोले–तुम्हारा कोई काम ठीक नहीं होता। जलता हुआ हलवा सामने रख दिया। आखिर मुँह जलाने से तुम्हें कुछ मिल तो नहीं गया।
निर्मला–ज़रा हाथ से देख क्यों नहीं लिया?
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