उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
वज्रधर–वाह, उलटा चोर कोतवाल को डाँटे। मुझी को उल्लू बनाती हो। तुम्हें खुद सोच लेना चाहिए था कि जलता हुआ हलवा खा गए, तो मुँह की क्या दशा होगी। लेकिन तुम्हें क्या परवाह। लल्लू कहाँ हैं?
निर्मला–लल्लू मुझसे कह के कहाँ जाते हैं! पहर रात रहे, न जाने किधर चले गए। जाने कहीं किसानों की सभा होनेवाली है। वहीं गए हैं।
वज्रधर–वहाँ दिन भर भूखों मरेगा। न जाने इसके सिर से यह भूत कब उतरेगा? मुझसे कल दारोग़ाजी कहते थे, आप लड़के को सँभालिए, नहीं तो धोखा खाएगा। समझ में नहीं आता, क्या करूँ? मेरे इलाके के आदमी भी इन सभाओं में अब जाने लगे हैं और मुझे ख़ौफ हो रहा है कि कहीं रानी साहब के कानों में भनक पड़ गई, तो मेरे सिर हो जाएँगी। मैं यह तो मानता हूँ कि अहलकार लोग ग़रीबों को बहुत सताते हैं, मगर किया क्या जाए, सताए वग़ैर काम भी तो नहीं चलता। आखिर उनका गुज़र-बसर कैसे हो। किसानों को समझाना बुरा नहीं, लेकिन आग में कूदना तो बुरी बात है। मेरे तो सुनने की उसने कसम खा ली है, मगर तुम क्यों नहीं समझातीं?
निर्मला–जो आग में कूदेगा, आप जलेगा, मुझे क्या करना है। उससे बहस कौन करे। आज सवेरे-सवेरे कहाँ जा रहे हो?
वज्रधर–ज़रा ठाकुर विशालसिंह के यहाँ जाता हूँ।
निर्मला–दोपहर तक लौट आओगे न?
वज्रधर–हाँ, अगर उन्होंने छोड़ा। मुझे देखते ही टूट पड़ते हैं, तरह-तरह की खातिर करने लगते हैं, दूध लाओ, मेवे लाओ, जान ही नहीं छोड़ते। तीनों औरतों का किस्सा छेड़ देते हैं। बड़े ही मिलनसार आदमी हैं। मंगला क्या अभी तक सो रही है?
निर्मला–हाँ, जगा के हार गई, उठती ही नहीं।
वज्रधर–यह तो बुरी बात है। बहू-बेटियों का इतने दिन चढ़े तक सोना क्या अच्दी बात है?
यह कहकर मुंशीजी ने लोटे का पानी उठाया और मंगला के ऊपर डाल दिया। निर्मला ‘हाँ-हाँ’ करती रह गई। पानी पड़ते ही मंगला हड़बड़ाकर उठी और यह समझकर कि वर्षा हो रही है, कोठरी में घुस गई, सरदी के मारे काँप रही थी।
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