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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


निर्मला–सवेरे-सवेरे लेके नहला दिया।

वज्रधर–यह सब तुम्हारे लाड़-प्यार का फल है। खुद दोपहर तक सोती हो, वही आदतें लड़कों को भी सिखाती हो।

निर्मला–स्वभाव सबका अलग-अलग होता है। न कोई किसी के बनाने से बनता है, न बिगाड़ने से बिगड़ता है। माँ-बाप को देखकर लड़कों का स्वभाव बदल जाता, तो लल्लू कुछ और ही होता। तुम्हें पिये बिना एक दिन भी चैन नहीं आता, उसे भी कभी पीते देखा है? यह सब कहने की बातें हैं कि लड़के माँ-बाप की आदतें सीखते हैं।

वज्रधर ने इसका कुछ जवाब न दिया। कपड़े पहने; बाहर घोड़ा तैयार था, उस पर बैठे शिवपुर चले।

जब वह ठाकुर साहब के मकान पर पहुँचे, तो आठ बज गए थे! ठाकुर साहब धूप में बैठे एक पत्र पढ़ रहे थे। बड़ा तेजस्वी मुख था। वह एक काला दुशाला ओढ़े हुए थे, जिस पर समय के अत्याचार के चिह्न दिखाई दे रहे थे। इस दुशाले ने उनके गोरे रंग को और भी चमका दिया था।

मुंशीजी ने मोढ़े पर बैठते हुए कहा–सब कुशल आनन्द है न?

ठाकुर–जी हाँ, ईश्वर की दया है। कहिए दरबार के क्या समाचार हैं? यद्यपि ठाकुर साहब रानी के सम्बन्ध में कुछ पूछना ओछापन समझते थे, तथापि इस विषय में उन्हें इतना प्रेम था कि बिना पूछे रहा न जाता था।

मुंशीजी ने मुस्कुराकर कहा–सब वही पुरानी बातें हैं। डॉक्टरों के पौ बारह हैं। दिन में तीन-तीन डॉक्टर आते हैं।

ठाकुर–क्या शिकायत है?

मुंशी–बुढ़ापे की शिकायत क्या कम है? यह तो असाध्य रोग है।

ठाकुर–उन्हें तो और मनाना चाहिए कि किसी तरह इस मायाजाल से छूट जायें। दवा-दर्पण की अब क्या ज़रूरत है। इतने दिन राजसुख भोग चुकीं, पर अब भी जी नहीं भरा!

मुंशी–वह तो अभी अपने को मरने लायक नहीं समझतीं। रोज़ जगदीशपुर से १६ कहार पालकी उठाने के लिए बेगार पकड़कर आते हैं। वैद्यजी को लाना और ले जाना उनका काम है।

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