लोगों की राय

उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


ठाकुर–अन्धेर है और कुछ नहीं, पुराने ज़माने में तो ख़ैर सस्ता समय था। जो दो-चार पैसे मजदूरों को मिल जाते थे, वही खाने भर को बहुत थे। आजकल तो एक आदमी का पेट भरने को एक रुपया चाहिए। यह महा अन्याय है। बेचारी प्रजा तबाह हुई जाती है। आप देखेंगे कि मैं इस प्रथा को क्योंकर जड़ से उठा देता हूँ।

मुंशी–आपसे लोगों को बड़ी आशाएँ हैं। चमारों पर भी यही आफ़त है! दस-बारह चमार रोज़ साईसी करने के लिए पकड़ बुलाए जाते हैं। सुना है, इलाके भर के चमारों ने पंचायत की है कि जो साईसी करे, उसका हुक्का पानी बन्द कर दिया जाये। अब या तो चमारों को इलाका छोड़ना पड़ेगा, या दीवान साहब को साईस नौकर रखने पड़ेंगे।

ठाकुर–चमारों को इलाके से निकालना कोई दिल्लगी नहीं है। ये लोग समझतें हैं कि अभी वही दुनिया है, जो बाबा आदम के ज़माने में थी। चारों तरफ़ देखते हैं कि ज़माना पलट गया, यहाँ तक कि किसान और मज़दूर राज्य करने लगे, पर अब भी लोगों की आँखें नहीं खुलतीं। इस देश से न जाने कब यह प्रथा मिटेगी। प्रजा तबाह हुई जाती है। आप देखेंगे, मैं रियासत को क्या कर दिखाता हूँ। कायापलट कर दूँगा। सुनता हूँ, पुलिस आये दिन इलाके में तूफान मचाती रहती है। मैं पुलिस को यहाँ कदम न रखने दूँगा। ज़ालिमों के हाथों प्रजा तबाह हुई जाती है।

मुंशी–सड़कें इतनी खराब हो गयी हैं कि एक एक्के-गाड़ी का गुजर ही नहीं हो सकता।

ठाकुर–सड़कों को दुरुस्त करना मेरा पहला काम होगा। मोटर सर्विस जारी कर दूँगा, जिसमें मुसाफ़िरों को स्टेशन से जगदीशपुर जाने में सुविधा हो। इलाकों में लाखों बीघे ऊख बोयी जाती है और उसका गुड़ या राब बनती है। मेरा इरादा है कि एक शक्कर की मिल खोल दूँ और एक अंग्रेज़ को उसका मैनेजर बना दूँ। मैं तो इन लोगों के सुप्रबन्ध का कायल हूँ। हिन्दुस्तानियों पर कभी विश्वास न करें, भूलकर भी नहीं। ये इलाके को तबाह कर देते हैं। शेखी तो नहीं मारता, इलाके में एक बार राज्यसभा स्थापित कर दूँगा, कंचन बरसने लगेगा। आपने किसी महाजन को ठीक किया?

मुंशी–हाँ, कई आदमियों से मिला था और वे बड़ी खुशी से रुपये देने के लिए तैयार हैं, केवल यही चाहते हैं कि ज़मानत के तौर पर कोई गाँव लिख दिया जाये।

ठाकुर–आपने हामी तो नहीं भर ली?

मुंशी–जी नहीं, हामी नहीं भरी; लेकिन बग़ैर ज़मानत के रुपये मिलना मुश्किल मालूम होता है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book