लोगों की राय

उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


ठाकुर–तो जाने दीजिए। कोई ऐसी ज़रूरत नहीं है, जो टाली न जा सके। अगर कोई मेरे विश्वास पर रुपये दे, तो दे दे, लेकिन रियासत की इंच भर भी ज़मीन रेहन नहीं कर सकता। मैं फ़ाके करूँ; बिक जाऊँ, लेकिन रियासत पर आँच न आने दूँगा। हाँ, इसका वायदा करता हूँ कि रियासत मिलने के साल भर बाद कौड़ी-कौड़ी सूद के साथ चुका दूँगा। सच्ची बात तो यह है कि मुझे पहले ही मालूम था कि इस शर्त पर कोई महाजन रुपये देने पर राज़ी न होगा। ये बला के चीमड़ होते हैं। मुझे को इनके नाम से चिढ़ है। मेरा वश चले, तो आज इन सभी को तोप से उड़ा दूँ। जितना डर मुझे इनसे लगता है, उतना साँप से भी नहीं लगता। इन्हीं के हाथों आज मेरी दुर्गति है, नहीं तो इस गयी बीती दशा में आज नहीं होता। इन नरपिशाचों ने सारा रक्त चूस लिया। पिताजी ने केवल पाँच हज़ार लिये थे, जिनके पचास हज़ार हो गए। पिताजी का मुझे यह अन्तिम उपदेश था कि क़र्ज कभी मत लेना। इसी शोक में उन्होंने देह त्याग दी।

यहाँ अभी यह बातें हो रही थीं कि जनानखाने में से कलह के शब्द आने लगे। मालूम होता था, कई स्त्रियों में संग्राम छिड़ा हुआ है। ठाकुर साहब ये कर्कश शब्द सुनते ही विकल हो गए, उनके माथे पर बल पड़ गए, मुख तेजहीन हो गया। यही उनके जीवन की सबसे दारुण व्यथा थी। यही काँटा था, जो नित्य उनके हृदय में खटका करता था। उनकी बड़ी स्त्री का नाम वसुमती था। वह अत्यन्त गर्वशील थी; नाक पर मक्खी भी न बैठने देती। उनकी तलवार सदैव म्यान से बाहर रहती थी। वह अपनी सपत्नियों पर उसी भाँति शासन करना चाहती थीं, जैसे कोई सास अपनी बहुओं पर करती है। वह यह भूल जाती कि ये उनकी बहुएँ नहीं, सपत्नियाँ हैं। जो उनकी हाँ में हाँ मिलाता, उस पर प्राण देती थी; किन्तु उनकी इच्छा के विरूद्ध ज़रा भी कोई बात हो जाती, तो सिंहनी का-सा विकराल रूप धारण कर लेती थी।

दूसरी स्त्री का नाम रामप्रिया था। यह रानी जगदीशपुर की सगी बहन थी। उनके पिता पुराने खिलाड़ी थे, दो दस्ती झाड़ते थे। दोधारी तलवार से लड़ते थे। रामप्रिया दया और विनम्र की मूर्ति थी, बड़ी विचारशील और वाक्मधुर; जितना कोमल अंग था, उतना कोमल हृदय भी था। वह घर में इस तरह रहती थी, मानों थी ही नहीं। उसे पुस्तकों से विशेष रुचि थी। हरदम कुछ-न-कुछ पढ़ा-लिखा करती थी। सबसे अलग-अलग रहती थी; न किसी के लेने में, न देने में, न किसी से बैर, न प्रेम।

तीसरी महिला का नाम रोहिणी था। ठाकुर साहब का उन पर विशेष प्रेम था, और वह प्राणपण से उनकी सेवा करती थी। इसमें प्रेम की मात्रा अधिक थी या माया की–इसका निर्णय करना कठिन था। उसे यह असह्य था कि ठाकुर साहब उनकी सौतों से बातचीत भी करें। वसुमती कर्कशा होने पर भी मलिन हृदय न थी, जो कुछ मन में होता, वही मुख में। एक बार मुँह से बात निकाल डालने पर फिर उसके हृदय पर उसका कोई चिह्न न रहता था। रोहिणी द्वेष को पालती थी, जैसे चिड़िया अपने अण्डे को सेती है। वह जितना मुँह से कहती थी उससे कहीं अधिक मन में रखती थी।

ठाकुर साहब ने अन्दर जाकर वसुमति ने कहा–तुम घर में रहने दोगी या नहीं? ज़रा भी शरम-लिहाज़ नहीं कि बाहर कौन बैठा हुआ है। बस, जब देखो, संग्राम मचा रहता है। इस जिन्दगी से तंग आ गया। सुनते-सुनते कलेजे में नासूर पड़ गए।

वसुमती–कर्म तो तुमने किये हैं, भोगेगा कौन?

ठाकुर–तो ज़हर दे दो। जला-जलाकर मारने से क्या फ़ायदा!

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book