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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....

चक्रधर की कीर्ति उनसे पहले ही बनारस पहुँच चुकी थी। उनके मित्र और अन्य लोग उनसे मिलने के लिए उत्सुक हो रहे थे। बार-बार आते थे और पूछकर लौट जाते थे। जब वह पाँचवें दिन घर पहुँचे, तो लोग मिलने और बधाई देने आ पहुँचे। नगर का सभ्य समाज मुक्त कंठ से उनकी तारीफ़ कर रहा था। यद्यपि चक्रधर गंभीर आदमी थे, पर अपनी कीर्ति की प्रशंसा से उन्हें सच्चा आनन्द मिल रहा था। मुसलमानों की संख्या के विषय में किसी को भ्रम होता, तो वह तुरन्त उसे ठीक कर देते थे–एक हज़ार! अजी, पूरे पाँच हज़ार आदमी थे और सबी की त्योरियाँ चढ़ी हुई थीं। मालूम होता था, मुझे खड़ा निगल जाएँगे। जान पर खेल गया और क्या कहूँ। कुछ लोग ऐसे भी थे, जिन्हें चक्रधर की वह अनुनय-विनय अपमान जान पड़ती थी। उनका ख़्याल था कि इससे तो मुसलमान और भी शेर हो गए होंगे। इन लोगों से चक्रधर को घण्टों बहस करनी पड़ी, पर वे कायल न हुए। मुसलमानों में भी चक्रधर की तारीफ़ हो रही थी। दो-चार आदमी मिलने भी आए, लेकिन हिन्दुओं का जमघट देखकर लौट गये।

और लोग तो तारीफ़ कर रहे थे, पर मुंशी वज्रधर लड़के की नादानी पर बिगड़ रहे थे–तुम्हीं को क्यों यह भूत सवार हो जाता है? क्या तुम्हारी ही जान सस्ती है। तुम्हीं को अपनी जान भारी पड़ी है? क्या वहाँ और लोग न थे, फिर तुम क्यों आग में कूदने गये? मान लो, मुसलमानों ने हाथ चला दिया होता, तो क्या करते? फिर तो कोई साहब पास न फटकते! ये हज़ारों आदमी, जो आज, खुशी के मारे फूले नहीं समाते, बात तक न पूछते।

निर्मला तो इतनी बिगड़ी कि चक्रधर से बात तक न करना चाहती थी।

शाम को चक्रधर मनोरमा के घर गये। वह बगीचे में दौड़-दौड़कर हजारे से पौधों को सींच रही थी। पानी से कपड़े लथपथ हो गए थे। उन्हें देखते ही हजारा फेंककर दौड़ी और पास आकर बोली–आप कब आये बाबूजी? मैं पत्रों में रोज़ वहाँ का समाचार देखती थी और सोचती थी, आप यहाँ आएँगे, तो आपकी पूजा करूँगी। आप न होते तो वहाँ ज़रूर दंगा हो जाता। आपको बिगड़े हुए मुसलमानों के सामने अकेले जाते हुए ज़रा भी शंका न हुई?

चक्रधर ने कुर्सी पर बैठते हुए कहा–ज़रा भी नहीं। मुझे तो यही धुन थी कि इस वक़्त क़ुर्बानी न होने दूँगा, इसके बिना दिल में और कोई ख़याल न था। अब सोचता हूँ, तो आश्चर्य होता है कि मुझमें इतना बल  और साहस कहाँ से आ गया था। मैं तो यही कहूँगा कि मुसलमानों को लोग नाहक बदनाम करते हैं। फ़साद से वे भी उतना ही डरते हैं, जितना हिन्दू। शान्ति की इच्छा भी उनमें हिन्दुओं से कम नहीं है। लोगों का यह ख़याल कि मुसलमान लोग हिन्दुओं पर राज्य करने का स्वप्न देख रहे हैं, बिल्कुल ग़लत है। मुसलमानों को केवल यह शंका हो गई है कि हिन्दू उनसे पुराना बैर चुकाना चाहते हैं और उनकी हस्ती को मिटा देने की फ़िक्र कर रहे हैं। इसी भय से वे ज़रा-ज़रा-सी बातों पर तिनक उठते हैं और मरने-मारने पर आमादा हो जाते हैं।

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