उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
मनोरमा–मैंने तो जब पढ़ा कि आप उन बौखलाए हुए आदमियों के सामने निःशंक भाव से खड़े थे, तो मेरे रोंगटे खड़े हो गए। आगे पढ़ने ही हिम्मत न पड़ती थी कि कहीं कोई बुरी खबर न हो। क्षमा कीजिएगा, मैं उस समय वहाँ होती, तो आपको पकड़कर खींच लाती। आपको अपनी जान का ज़रा मोह नहीं है।
चक्रधर–(हँसकर) जान और है ही किसलिए? पेट पालने ही के लिए तो आदमी नहीं बनाए गए हैं। हमारे जीवन का आदर्श कुछ तो ऊँचा होना चाहिए, विशेषकर उन लोगों का, जो सभ्य कहलाते हैं। ठाठ से रहना ही सभ्यता नहीं।
मनोरमा–(मुस्कुराकर) अच्छा, अगर इस वक़्त आपको पाँच लाख रुपये मिल जाए, तो आप लें या न लें?
चक्रधर–कह नहीं कहता, मनोरमा, उस वक़्त दिल की क्या हालत हो। दान तो न लूँगा, पड़ा हुआ धन भी न लूँगा; लेकिन अगर किसी ऐसी विधि से मिले कि उसे लेने में आत्मा की हत्या न होती हो, तो शायद मैं प्रलोभन को रोक न सकूँ, पर इतना अवश्य कह सकता हूँ कि उसे भोग-विलास में न उड़ाऊँगा। धन की मैं निन्दा नहीं करता, उससे मुझे डर लगता है। दूसरों का आश्रित बनना तो लज्जा की बात है; लेकिन जीवन को इतना सरल रखना चाहता हूँ कि सारी शक्ति धन कमाने और अपनी ज़रूरतों को पूरा करने ही में न लगानी पड़े।
मनोरमा–धन के बिना परोपकार भी नहीं हो सकता।
चक्रधर–परोपकार मैं नहीं करना चाहता, मुझमें इतना सामर्थ्य ही नहीं। यह तो वे ही लोग कर सकते हैं, जिन पर ईश्वर की कृपादृष्टि हो। मैं परोपकार के लिए अपने जीवन को सरल नहीं बनाना चाहता; बल्कि अपने उपकार के लिए, अपनी आत्मा के सुधार के लिए। मुझे अपने ऊपर भरोसा नहीं है कि धन पाकर भी भोग में न पड़ जाऊँ। इसलिए मैं उससे दूर ही रहता हूँ।
मनोरमा–अच्छा, अब यह तो बताइए कि आपसे वधूजी ने क्या बातें कीं? (मुस्कुराकर) मैं तो जानती हूँ, आपने कोई बातचीत न की होगी, चुपचाप लजाए बैठे रहे होंगे। उसी तरह वह भी आपके सामने आकर खड़ी हो गई होंगी और खड़ी-खड़ी चली गई होंगी।
चक्रधर शरम से सिर झुकाकर बोले–हाँ, मरोरमा, हुआ तो ऐसा ही। मेरी समझ ही में न आता था कि क्या करूँ। उसने दो-एक बार कुछ बोलने का साहस भी किया।
मनोरमा–आपको देखकर खुश तो बहुत हुई होंगी?
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