उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
भादों की अँधेरी रात थी। मूसलाधार वर्षा हो रही थी। रानी साहब को आज कुछ ज्वर था, चेष्टा गिरी हुई थी, सिर उठाने को जी न चाहता था; पर पड़े रहने का असवर न था। हर्षपुर के राजकुमार को आज उन्होंने निमन्त्रित किया था। उनके आदर-सत्कार का काम करना ज़रूरी था। उनके सहवास के सुख से वह अपने को वंचित न कर सकती थीं। उनके आने का समय भी निकट था। रानी ने बड़ी मुश्किल से उठकर आईने में अपनी सूरत देखी। उनके हृदय पर आघात-सा हुआ। मुख प्रभातचन्द्र की भाँति मन्द हो रहा था।
रानी ने सोचा, अभी राजकुमार आते ही होंगे। क्या मैं उनसे इसी दशा में मिलूँगी? संसार में क्या कोई ऐसी संजीवनी नहीं है, जो काल के कुटिल चिह्न को मिटा दे? ऐसी वस्तु कहीं मिल जाती, तो मैं सारा राज्य बेचकर उसे ले लेती। जब भोगने का सामर्थ्य ही न हो, तो राज्य से सुख ही क्या! हा! निर्दयी काल! तूने मेरा कोई प्रयत्न सफल न होने दिया।
राजकुमार अब आते होंगे, मुझे तैयार हो जाना चाहिए, ज्वर है, कोई परवाह नहीं। मालूम नहीं, जीवन में फिर ऐसा अवसर मिले या न मिले।
सामने मेज़ पर एक एलबम रखा था। रानी ने राजकुमार का चित्र निकाल कर देखा। कितना सहास मुख था, कितना तपस्वी स्वरूप, कितनी साधुमयी छवि!
रानी एक आरामकुर्सी पर लेटकर सोचने लगीं–यह चित्र न जाने क्यों मेरे चित्त को इतने ज़ोर से खींच रहा है। चित्त कभी इतना चंचल न हुआ था। इसी एलबम में और भी कई चित्र हैं, जो इससे कहीं सुन्दर हैं; लेकिन उन नवयुवकों को मैंने कठपुतलियों की तरह नचाकर छोड़ा। यह एक ऐसा चित्र है, जो मेरे हृदय में भूली हुई बातों को याद दिला रहा है, जिसके सामने ताकते हुए मुझे लज्जा-सी आती है।
रानी ने घड़ी की ओर आतुर नेत्रों से देखा। नौ बज रहे थे। अब वह लेटी न रह सकीं; सँभलकर उठीं; अलमारी से एक शीशी निकाली। उसमें से कई बूँदें एक प्याली में डालीं और आँखें बन्द कर पी गई। इसका चमत्कारिक असर हुआ, मानो कोई कुम्हलाया फूल ताज़ा हो जाए; कोई सूखी पत्ती हरी हो जाए। उनके मुखमण्डल पर आभा दौड़ गई। आँखों में चंचल सजीवता का विकास हो गया, शरीर में नए रक्त का प्रवाह-सा होने लगा। उन्होंने फिर आईने की ओर देखा और उनके अधरों पर एक मृदुल हास्य की झलक दिखाई दी। उनके उठने की आहट पाकर लौंडी कमरे में आकर खड़ी हो गई। यह उनकी नाइन थी। गुजराती नाम था।
रानी–समय बहुत थोड़ा है, जल्दी कर।
गुजराती–रानियों को कैसी जल्दी! जिसे मिलना होगा, वह स्वयं आएगा और बैठा रहेगा।
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