उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
|
8 पाठकों को प्रिय 320 पाठक हैं |
राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
रानी अब झूले पर न रह सकीं। इन शब्दों में निर्मल प्रेम झलक रहा था। जीवन में यह पहला ही अवसर था कि देवप्रिया के कानो में ऐसे सच्चे अनुराग में डूबे हुए शब्द पड़े। उन्हें ऐसा मालूम हो रहा था कि इनकी आँखें मेरे मर्मस्थल में चुभी जा रही हैं। वह उन तीव्र नेत्रों से बचना चाहती थीं। झूले से उतरकर रानी ने अपने केश समेट लिये और घूँघट से माथा छिपाती हुई बोलीं–श्रद्धा देवताओं को भी खींच लाती है। भक्त के पास सागर भी उमड़ता चला आता है।
यह कहकर वह हौज़ के किनारे जा बैठीं और फव्वारों को घुमाकर खोला, तो राजकुमारों पर गुलाब जल की फुहारें पड़ने लगीं। उन्होंने मुस्कुराकर कहा–गुलाब से सींचा हुआ पौधा लू के झोंके न सह सकेगा। इसका ख्याल रखिएगा।
रानी ने प्रेम सजल नेत्रों से ताकते हुए कहा–अभी गुलाब से सींचती हूँ, फिर अपने प्राण जल से सीचूँगी पर उसका फल खाना मेरे भाग्य में है या नहीं कौन जाने! उस वस्तु की आशा कैसे करूँ, जिसे मैं जानती हूँ कि मेरे लिए दुर्लभ है।
देवप्रिया ने यह कहते-कहते एक लम्बी साँस ली और आकाश की ओर देखने लगी। उसके मन में एक शंका हो उठती, क्या यह दुर्लभ वस्तु मुझे मिल सकती है? मेरा यह मुँह कहाँ?
राजकुमार ने करुण स्वर में कहा–जिस वस्तु को आप दुर्लभ समझ रही हैं, वह आज से बहुत पहले आपको भेंट हो चुकी है। आप मुझे नहीं जानतीं; पर मैं आपको जानता हूँ–बहुत दिनों से जानता हूँ। अब आपके मुँह से केवल यह सुनना चाहता हूँ कि आपने मेरी भेंट स्वीकार कर ली?
रानी–उस रत्न को ग्रहण करने की मुझमें सामर्थ्य नहीं है। आपकी दया के योग्य हूँ, प्रेम के योग्य नहीं।
राजकुमार–कोई ऐसा धब्बा नहीं है, जो प्रेम के जल से छूट न जाए।
रानी–समय के चिह्न को कौन मिटा सकता है? हाय! आपने मेरा असली रूप नहीं देखा। यह मोहिनी छवि, जो आप देख रहे हैं, बहुत दिन हुए, मेरा साथ छोड़ चुकी। अब मैं अपने यौवन काल का चित्र मात्र हूँ। आप मेरी असली सूरत देखेंगे, तो कदाचित् घृणा से मुँह फेर लेंगे।
यह कहते-कहते रानी को अपनी देह शिथिल होती हुई जान पड़ी। ‘सुधाबिन्दु’ का असर मिटने लगा। उनका चेहरा पीला पड़ गया, झुर्रियाँ दिखाई देने लगीं। उन्होंने लज्जा से मुँह छिपा लिया और यह सोचकर कि शीघ्र ही यह प्रेमाभिनय समाप्त हो जाएगा, वह फूट-फूटकर रोने लगीं। राजकुमार ने धीरे से उनका हाथ पकड़ लिया और प्रेम-मधुर स्वर में बोले–प्रिये, मैं तुम्हारे इसी रूप पर मुग्ध हूँ, उस बने हुए रूप पर नहीं। मैं वह चाहता हूँ, जो इस परदे के पीछे छिपी हुई है। वह बहुत दिनों से मेरी थी; हाँ इधर कुछ दिनों से उस पर मेरा अधिकार न था। मेरी तरफ़ ध्यान से देखो, मुझे पहचानती हो? कभी देखा है?
|