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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


रानी ने हैरत में आकर राजकुमार के मुँह पर नज़र डाली। ऐसा मालूम हुआ, मानो आँखों के सामने से परदा हटा गया। याद आया, मैंने इन्हें कहीं देखा है। ज़रूर देखा है। वह सोचने लगी, मैंने इन्हें कहाँ देखा है। याद न आया। बोलीं–मैंने आपको कहीं पहले देखा है।

राजकुमार–खूब याद है कि आपने मुझे देखा है? भ्रम तो नहीं हो रहा है?

रानी–नहीं, मैंने आपको अवश्य देखा है। सम्भव है, कभी रेलगाड़ी में देखा हो; मगर ऐसा मालूम होता है कि आप और मैं कभी बहुत दिनों एक ही जगह रहे हैं। मुझे तो याद नहीं आता। आप ही बताइए।

राजकुमार–खूब याद कर लिया?

रानी–(सोचकर) हाँ, कुछ ठीक याद नहीं आता। शायद तब आपकी उम्र कुछ कम थी; मगर थे आप ही।

राजकुमार ने गम्भीर भाव से कहा–हाँ प्रिये, मैं ही था। तुमने मुझे अवश्य देखा है, हम और तुम एक साथ रहे हैं और इसी घर में। यही मेरा घर था। तुम स्त्री थी, मैं पुरुष था। तुम्हें याद है, हम और तुम इसी जगह, हौज़ के किनारे शाम को बैठा करते थे? अब पहचाना?

देवप्रिया की आँखें फिर राजकुमार की ओर उठीं। आईने की गर्द साफ़ हो गई। बोलीं–प्राणेश! तुम्हीं हो इस रूप में?

यह कहते-कहते वह मूर्छित हो गईं।

रानी देवप्रिया का सिर राजकुमार के पैरों पर था और आँखों से आँसू बह रहे थे। उनकी ओर ताकते हुए विचित्र भय हो रहा था। उसे कुछ-कुछ सन्देह हो रहा था कि मैं सो तो नहीं रही हूँ। कोई मनुष्य माया के दुर्भेद्य अंधकार को चीर सकता है? जीवन और मृत्यु के मध्यवर्ती अपार विस्मृत सागर को पार कर सकता है? जिसमें यह समर्थ्य हो, वह मनुष्य नहीं, प्रेत योनि का जीव है। यह विचार आते ही रानी का सारा शरीर काँप उठा, पर इस भय के साथ ही उसके मन में उत्कण्ठा हो रही थी कि उन्हीं चरणों से लिपटी हुई इसी क्षण प्राण त्याग दूँ। राजकुमार उसके पति हैं।  इसमें तो सन्देह न था, सन्देह केवल यह था कि मेरे साथ यह कोई प्रेत-लीला तो नहीं कर रहे हैं। वह रह-रहकर छिपी हुई निग़ाहों से उनके मुख की ओर ताकती थीं, मानों निश्चय कर रही हों कि पति ही हैं या मुझे भ्रम हो रहा है।

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