लोगों की राय

उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


सहसा राजकुमार ने उठाकर बैठा दिया और उसके मनोभावों को शान्त करते हुए बोले–हाँ प्रिये, मैं तुम्हारा वही चिरसंगी हूँ, जो अपनी प्रेमाभिलाशाओं को लिये हुए कुछ दिनों से तुमसे जुदा हो गया था। मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है कि कोई यात्रा करके लौट रहा हूँ। जिसे हम मृत्यु कहते हैं, और जिसके भय से संसार काँपता है, वह केवल एक यात्रा है। उस यात्रा में भी मुझे तुम्हारी याद आती रहती थी। विकल होकर आकाश में इधर-उधर दौड़ा करता था। प्रायः सभी प्राणियों की यही दशा थी। कोई अपने संचित धन का अपव्यय देख-देखकर कुढ़ता था, कोई अपने बाल-बच्चों को ठोकरें खाते देख-देखकर रोता था। वे दृश्य इस मृत्युलोक के दृश्यों से कहीं करुणाजनक, कहीं दुःखमय थे। कितने ही ऐसे जीव दिखाई दिए, जिनके सामने यहाँ सम्मान से मस्तक झुकता था, वहाँ उनका नग्न रूप देखकर उनसे घृणा होती थी। यह कर्मलोक है, वहाँ भोगलोक; और कर्म का दण्ड कर्म से कहीं भयंकर होता है। मैं भी उन्हीं अभागों में था। देखता था कि मेरे प्रेम सिंचित उद्यान को भाँति-भाँति के पशु कुचल रहे हैं, प्रणव के पवित्र सागर में हिंसक जल-जन्तु दौड़ रहे हैं, और देख-देखकर क्रोध से मन विह्वल हो जाता था। अगर मुझमें वज्र गिराने की सामर्थ्य होती, तो गिरकर उन पशुओं का अन्त कर देता। मुझे यही जलन थी। कितने दिनों मेरी यह अवस्था रही, इसका कुछ निश्चय नहीं कर सकता, क्योंकि वहाँ समय का बोध कराने वाली मात्राएँ न थीं; पर मुझे तो ऐसा जान पड़ता था कि इस दशा में पड़े हुए मुझे कई युग बीत गए। रोज़ नई-नई सूरतें आतीं और पुरानी सूरतें लुप्त होती रहती थीं। सहसा एक दिन मैं लुप्त हो गया। कैसे लुप्त हुआ, यह याद नहीं; होश आया, तो मैंने अपने को बालक के रूप में पाया। मैंने राजा हर्षपुर के घर में जन्म लिया था।

इस नए घर में मेरा लालन-पालन होने लगा। ज्यों-ज्यों बढ़ता था, स्मृति पर परदा-सा पड़ता जाता था, पिछली बातें भूलता जाता था, यहाँ तक कि जब बोलने की सामर्थ्य हुई, तो माया अपना काम पूरा कर चुकी थी। बहुत दिनों तक अध्यापकों से पढ़ता रहा। मुझे विज्ञान में विशेष रुचि थी। भारतवर्ष में विज्ञान की कोई अच्छी प्रयोगशाला न होने के कारण मुझे यूरोप जाना पड़ा। वहाँ मैं वैज्ञानिक परीक्षाएँ करता रहा। जितना ही रहस्यों का ज्ञान बढ़ता था, उतना ही ज्ञान-पिपासा भी बढ़ती थी; किन्तु इन परीक्षाओं का फल मुझे लक्ष्य से दूर लिए जाता था। मैंने सोचा था, विज्ञान द्वारा जीव का तत्त्व निकाल लूँगा; पर सात वर्षों तक अनवरत करने पर भी मनोरथ न पूरा हुआ।

एक दिन मैं बर्लिन की प्रधान प्रयोगशाला में बैठा हुआ सोच रहा था कि एक तिब्बती भिक्षु आ निकला। मुझे चिन्तित देखकर वह एक क्षण मेरी ओर ताकता रहा, फिर बोला–बालू से मोती नहीं निकालते, भौतिक ज्ञान से आत्मा का ज्ञान नहीं प्राप्त होता।

मैंने चकित होकर पूछा–आपको मेरे मन की बात कैसे मालूम हुई?

भिक्षु ने हँसकर कहा–आपके मन की इच्छा तो आपके मुख पर लिखी हुई है। जड़ से चेतन का ज्ञान नहीं होता। यह क्रिया ही उल्टी है। उन महात्माओं के पास जाओ, जिन्होंने आत्म-ज्ञान प्राप्त किया है। वही तुम्हें वह मार्ग दिखाएँगे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book