लोगों की राय

उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

Like this Hindi book 8 पाठकों को प्रिय

320 पाठक हैं

राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


चक्रधर–राजधर्म का आदर्श पालन करना था।

मनोरमा–तो क्या दोनों प्राणी जानते थे कि हम संसार के लिए आदर्श खड़ा कर रहे हैं? इससे तो यह सिद्ध होता है कि वे कोई अभिनय कर रहे थे। अगर आदर्श भी मान लें, तो यह ऐसा आदर्श है, जो सत्य की हत्या करके पाला गया है। यह आदर्श नहीं है, चरित्र की दुर्बलता है। मैं आपसे पूछती हूँ, आप रामचन्द्र की जगह होते, तो क्या आप भी सीता को घर से निकाल देते?

चक्रधर बड़े असमंजस में पड़ गए। उनके मन में स्वयं भी यही शंका और लगभग इसी उम्र में हुई थी; पर वह इसका समाधान न कर सके थे। अब साफ़-साफ़ जवाब देने की ज़रूरत पड़ी, तो बगलें झाँकने लगे।

मनोरमा ने उन्हें चुप देखकर फिर पूछा–क्या आप भी उन्हें घर से निकाल देते?

चक्रधर–नहीं, मैं तो शायद न निकालता।

मनोरमा–आप निन्दा की ज़रा भी परवाह न करते?

चक्रधर–नहीं, मैं झूठी निन्दा की परवाह न करता।

मनोरमा की आँखें खुशी से चमक उठीं, प्रफुल्लित होकर बोली–यही बात मेरे भी मन में थी। मैं दादाजी से, भाईजी से, पण्डितजी से, लौंगी अम्मा से, भाभी से, यही शंका की, पर सब लोग यही कहते थे कि रामचन्द्र तो भगवान् हैं, उनके विषय में कोई शंका हो ही नहीं सकती। आपने आज मेरे मन की बात कही। मैं जानती थी कि आप यही जवाब देंगे। इसीलिए मैंने आपसे पूछा था। अब मैं उन लोगों को खूब आडे़ हाथों लूँगी।

उस दिन से मनोरमा को चक्रधर से कुछ स्नेह हो गया। पढ़ने-लिखने से उसे विशेष रुचि हो गई। चक्रधर उसे जो काम करने को दे जाते, वह उसे अवश्य पूरा करती। पहले की भाँति अब हीले-हवाले न करती। जब उनके आने का समय होता, तो पहले से ही आकर बैठ जाती और उनका इन्तज़ार करती। अब उसे उनसे अपने मन के भाव प्रकट करते हुए संकोच न होता। वह जानती थी कि कम-से-कम यहाँ उनका निरादर न होगा, उसकी हँसी न उड़ाई जाएगी।

ठाकुर हरिसेवक सिंह की आदत थी कि पहले दो-चार महीने तक तो नौकरों को वेतन ठीक समय पर दे देते; पर ज्यों-ज्यों नौकर पुराना होता जाता था, उन्हें उसके वेतन की याद भूलती जाती थी। उनके यहाँ कई नौकर ऐसे भी पड़े थे, जिन्होंने वर्षों से अपने वेतन नहीं पाए थे, न चक्रधर संकोचवश माँगते थे। उधर घर में रोज़ तकरार होती थी। मुंशी वज्रधर बार-बार तकाज़े करते, झुँझलाते-माँगते क्यों नहीं? क्या मुँह में दही जमा हुआ है, या काम नहीं करते? लिहाज़ भले आदमी का किया जाता है। ऐसे लुच्चों का लिहाज़ नहीं किया जाता जो मुफ़्त में काम कराना चाहते हैं।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book