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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


मैंने पूछा–ऐसे महात्माओं के दर्शन कहाँ होंगे? मेरा तो अनुमान है कि वह विद्या ही लोप हो गई और उसके जानने का जो दावा करते हैं, वह बने हुए महात्मा हैं।

भिक्षु–यथार्थ कहते हो; लेकिन अब भी खोजने से ऐसे महात्मा मिल जाएँगे। तिब्बत की तपोभूमि में आज भी ऐसी महान् आत्माएँ हैं, जो माया का रहस्य खोल सकती हैं। हाँ, जिज्ञासा को सच्ची लगन चाहिए।

मेरे मन में बात बैठ गई। तिब्बत की चर्चा बहुत दिनों से सुनता आता था। भिक्षु से वहाँ की कितनी ही बातें पूछता रहा। अन्त में उसी के साथ तिब्बत चलने की ठहरी। मेरे मित्रों को यह बात मालूम हुई, तो वे भी मेरे साथ चलने पर तैयार हो गए। हमारी एक समिति बनाई गई, जिसमें दो अंग्रेज़, दो फ्रेंच और तीन जर्मन थे। अपने साथ नाना प्रकार के यन्त्र लेकर हम लोग अपने मिशन पर पहुँचे, विहारों में क्या-क्या दृश्य देखे, इसकी चर्चा करने लगूँ तो कई दिन लग जाएँगे। कई बार तो हम लोग मरते-मरते बचे; लेकिन वहाँ चित्त को जो शान्ति मिली, उसके लिए हम मर भी जाते, तो दुःख न होता। अंग्रेज़ों को तो सफलता न हुई क्योंकि वे तिब्बत की सैनिक स्थिति का निरीक्षण करने आये थे और भिक्षुओं ने उनकी नीयत भाँप ली थी। लेकिन शेष पाँचों मित्रों ने तो पाली और संस्कृत के ऐसे-ऐसे ग्रन्थ-रत्न खोज निकाले कि उन्हें यहाँ से ले जाना कठिन हो गया। जर्मन तो ऐसे प्रसन्न थे, मानों उन्हें कोई प्रदेश हाथ आ गया हो।

शरद् ऋतु थी, जलाशय हिम से ढक गए थे। चारों ओर बर्फ़-ही-बर्फ़ दिखाई देती थी। मेरे मित्र लोग तो पहले ही चले गए थे। अकेला मैं ही रह गया था। एक दिन सन्ध्या समय मैं इधर-उधर विचरता हुआ एक शिला पर जाकर खड़ा हो गया। सामने का यह दृश्य अत्यन्त मनोरम था, मानों स्वर्ग का द्वार खुला हुआ है। उनका बखान करना उसका अपमान करना है। मनुष्य की वाणी में न इतनी शक्ति है, न शब्दों में इतना चित्र्य! इतना ही कह देना काफी है कि दृश्य अलौकिक था, स्वर्गोपम था। विशाल दृश्यों के सामने हम मंत्रमुग्ध से हो जाते हैं, अवाक् होकर ताकते हैं, कुछ कह नहीं सकते। मौन आश्चर्य की दशा में खड़ा ताक ही रहा था कि सहसा मैंने एक वृद्ध पुरुष को सामने की गुफा से निकलकर पर्वत शिखर की ओर जाते देखा। जिन शिलाओं पर कल्पना के भी पाँव डगमगा जाएँ, उन पर इतनी सुगमता से चले जाते थे कि विस्मय होता था। बड़े-बड़े दर्रों को इस भाँति फाँद जाते थे, मानों छोटी-छोटी नालियाँ हैं। मनुष्य की यह शक्ति कि वह, उस हिम से ढके हुए दुर्गम श्रृंग पर इतनी चपलता से चला जाए। और मनुष्य ही वह, जिसके सिर के बाल सन की भाँति सफ़ेद हो गए थे!

मुझे ख्याल आया कि इतना पुरुषार्थ प्राप्त करना किसी सिद्ध ही का काम है। मेरे मन में उनके दर्शन की तीव्र उत्कण्ठा हुई, पर मेरे लिए ऊपर चढ़ना असाध्य था। वह न जाने फिर कब तक उतरें, कब तक वह खड़ा रहना पड़े। उधर अँधेरा बढ़ता जाता था। आखिर मैंने निश्चय किया कि आज चलूँ, कल से रोज़ दिन भर यहीं बैठा रहूँगा। कभी-न-कभी तो दर्शन होंगे ही। मेरा मन कह रहा था कि इन्हीं से तुझे आत्मज्ञान प्राप्त होगा। दूसरे दिन मैं प्रातःकाल मैं वहाँ आकर बैठ गया और सारे दिन शिखर की ओर टकटकी लगाए देखता रहा; पर चिड़िया का पूत भी न दिखाई दिया।

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