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उपन्यास >> कायाकल्प

कायाकल्प

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :778
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8516
आईएसबीएन :978-1-61301-086

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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....


एक महीने तक यही मेरा नित्य का नियम रहा। रात भर विहार में पड़ा रहता; दिन भर शिला पर बैठा रहता; पर महात्माजी न जाने कहाँ ग़ायब हो गए थे। उनकी झलक तक न दिखाई देती थी। मैंने कई बार ऊपर चढ़ने का प्रयत्न किया, पर सौ गज से आगे न जा सका। कील काँटे ठोंकते, शिलाओं पर रास्ता बनाते कई महीने में शिखर पर पहुँचना सम्भव था; पर यह अकेले आदमी का काम न था, अन्य भिक्षुओं से पूछता। तो हँसकर कहते, उनके दर्शन हमें दुर्लभ हैं, तुम्हें क्या होंगे? बरसों में कभी एक बार दिखाई दे जाते हैं। कहाँ रहते हैं, कोई नहीं जानता; किन्तु अधीर न होना। वह यदि तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हो गये तो तुम्हारी मनोकामना पूरी हो जायेगी। यह भी सुनने में आया कि कई भिक्षु उनके दर्शनों की चेष्टा में प्राणों से हाथ धो बैठे हैं। उनमें इतना विद्युत-तेज है कि साधारण मनुष्य उसके सम्मुख खड़ा ही नहीं हो सकता। उनकी नेत्र-ज्योति बिजली की तरह हृत्स्थल में लगती है। जिसने यह आघात सह लिया, उसकी तो कुशल है; जो नहीं सह सकता, वह वहीं खड़ा-खड़ा भस्म हो जाता है। कोई योगी ही उनसे साक्षात् कर सकता है।

यह बातें सुन-सुनकर मेरी भक्ति और भी दृढ़ हो जाती थी। मरूँ या जीऊँ; पर उनके दर्शन अवश्य करूँगा, यह धारणा मन में जम गई। योग की क्रियाएँ तो पहले ही करने लगा था, इसलिए मुझे विश्वास था कि मैं उनके तेज़ का सामना कर सकता हूँ। दिव्य-ज्ञान प्राप्त करने के प्रयत्न में मर जाना भी श्रेय की बात होगी। क्या था? क्या हूँगा? कहाँ जाऊँगा? इन प्रश्नों का उत्तर किसी ने आज तक न दिया और न दे सकते हैं, किसी को बता नहीं सकते। इस महान् उद्योग में मर जाना भी मनुष्य के लिए गौरव की बात है।

एक वर्ष गुज़र गया और महात्माजी के दर्शन न हुए। न जाने कहाँ जाकर अन्तर्ध्यान हो गए। वहाँ से न किसी को पत्र लिख सकता था, न संसार की कुछ ख़बर मिलती थी। कभी-कभी जी ऐसा घबराता था कि चलकर सांसारिक प्राणियों की भाँति जीवन का सुख भोगूँ। इसमें रखा ही क्या है कि मैं क्या था और क्या हूँगा? पहले तो यह निश्चित नहीं कि मुझे यह ज्ञान प्राप्त भी होगा, और हो भी गया तो उससे या संसार का क्या उपकार होगा? बिना इन रहस्यों को जाने भी जीवन को उच्च और पवित्र बनाया जा सकता है। वहाँ की सुरम्यता अजीर्ण हो गई, वह कमनीय प्रकृति छटा आँखों में खटकने लगी। विवश होकर स्वर्ग में भी रहना पड़े तो वह नरकतुल्य हो जाये।

अन्त में एक दिन मैंने निश्चय किया कि अब जो होना हो, सो हो; इस पर्वत श्रृंग पर अवश्य चढ़ूँगा। यह निश्चय करके मैंने चढ़ना शुरू किया; लेकिन दिन गुज़र गया और मैं सौ गज से आने न जा सका। मेरी चढ़ाई उन विज्ञान के खोजियों की-सी थी, जो सभी साधनों से लैस होते हैं। मैं अकेला था; न कोई यन्त्र, न मन्त्र, न रक्षक, न प्रदर्शक; भोजन का भी ठिकाना नहीं, प्राणों पर खेलना था। करता क्या! ज्ञान के मार्ग में यन्त्रों का जिक्र ही क्या! आत्मसमर्पण तो उसकी पहली क्रिया है। जानता था कि मर जाऊँगा; किन्तु पड़े-पड़े मरने से उद्योग करते हुए मरना अच्छा था।

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