उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
पहली रात मैंने एक चट्टान पर बैठकर काटी। बार-बार झपकियाँ आती थीं; चौंक-चौंक पड़ता था। ज़रा चूका और रसातल पहुँचा। इतनी कुशल थी कि गर्मी के दिन आ गए थे। हिम का गिरना बन्द हो गया; पर जहाँ इतना आराम था, वहाँ पिघली हुई हिमशिलाओं के गिरने से क्षणमात्र में जीवन से हाथ धोने की शंका भी थी। वह भयंकर जन्तुओं की गरज़ और तड़प याद करता हूँ, तो आज भी रोमांच हो जाता है। बार-बार पूर्व दिशा की ओर ताकता था। खैर, किसी तरह रात कटी, सवेरे फिर चला। आज की चढ़ाई इतनी सीधी न थी, फिर भी इतनी सीधी न थी, फिर भी ५० गज से आगे न जा सका। रास्ते में एक दर्रा पड़ गया जिसे पार करना असंभव था। इधर-उधर बहुत निगाहें दौड़ाईं; पर ऐसा कोई उतार न दिखाई दिया, जहाँ से उतर कर दर्रे को पार कर सकता। इधर भी सीधी दीवार थी, उधर भी। संयोग से एक जगह दोनों ओर दो छोटे-छोटे वृक्ष दिखाई दिए।
मेरी जेब में पतली रस्सी का एक टुकड़ा पड़ा हुआ था। अगर किसी तरह इस रसी को दोनों वृक्षों में बाँध सकूँ तो समस्या हल हो जाये, लेकिन उस पर रस्सी को पेड़ में कौन बाँधे? आखिर मैंने रस्सी के एक सिरे में पत्थर का एक भारी टुकड़ा खूब कसकर बाँधा और उसको लंगर की भाँति उस पारवाले वृक्ष पर फेंकने लगा कि किसी डाल में फँस जाये, तो पार हो जाऊँ। बार-बार पूरा जोर लगाकर लंगर फेंकता था; पर लंगर वहाँ तक न पहुँचता था। सारा दिन इसी लंगरबाज़ी में कट गया, रात हो गई। शिलाओं पर सोना जान जोखिम था। इसलिए वह रात मैंने वृक्ष ही पर काटने की ठानी। मैं ऊपर चढ़ गया और दो डालों में रस्सी फँसा-फँसाकर एक छोटी-सी खाट बना ली। आधी रात गुजरी थी कि बड़े ज़ोर का धमाका हुआ। उस अथाह खोह में कई मिनट तक उसकी आवाज़ गूँजती रही। सवेरे देखा तो बर्फ की एक बड़ी शिला ऊपर से पिघलकर गिर पड़ी थी और उस दर्रे पर उसका एक पुल-सा बन गया था। मैं खुशी के मारे फूला न समाया। जो मेरे से कभी न हो सकता था, वह प्रकृति ने अपने आप ही कर दिया। यद्यपि उस पुल पर से दर्रे को पार करना प्राणों से खेलना था। मैंने ईश्वर को स्मरण किया और सँभल-सँभलकर उस हिम राशि पर पाँव रखता हुआ खाईं पार कर गया। इस असाध्य साधना में सफल होने से मेरे मन में यह धारणा होने लगी कि मर नहीं सकता। कोई अज्ञात शक्ति मेरी रक्षा कर रही है। किसी कठिन कार्य में सफल हो जाना आत्मविश्वास के लिए संजीवनी के समान है। मुझे पक्का विश्वास हो गया कि मेरा मनोरथ अवश्य पूरा होगा।
उस पर पहुँचते ही सीधी चट्टान मिली। दर्रे के किनारे और चट्टान में केवल एक बालिश्त, और कहीं-कहीं एक हाथ का अन्तर था। उस पतले रास्ते पर चलना तलवार की धार पर पैर रखना था। चट्टान से चिमट-चिमटकर चलता हुआ, दो तीन घण्टों के बाद मैं एक ऐसे स्थान पर जा पहुँचा, जहाँ चट्टान की तेजी बहुत कम हो गई थे। मैं लेटकर ऊपर को रंगने लगा। सम्भव था, मैं संध्या तक इस तरह रेंगता रहता, पर संयोग से एक समतल शिला मिल गई और उसे देखते ही मुझे ज़ोर की थकान मालूम होने लगती। जानता था कि यहाँ सोकर फिर उठने की नौबत न आएगी, पर ज़रा से लेट लेने के लोभ को मैं किसी तरह संवरण न कर सका। नींद को दूर रखने के लिए एक गीत गाने लगा। लेकिन न जाने कब आँखें झपक गईं।
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