उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
कह नहीं सकता कि कितनी देर तक सोया, जब नींद खुली और चाहा कि उठूँ, तो ऐसा मालूम हुआ कि ऊपर मानों बोझ रखा हुआ है। सब अंग जकड़े हुए थे। कितना ही ज़ोर मारता था, पर अपनी जगह से हिल न सकता था, चेतना किसी डूबते हुए नक्षत्र की भाँति डूबती जाती थी। समझ गया कि जीवन से इतने दिनों तक का साथ था। पूर्व स्मृतियाँ चेतना की अन्तिम जागृति की भाँति जागृत हो गईं। अपनी मूर्खता पर पछताने लगा। व्यर्थ प्राण खोए। इतना जानने ही से उद्धार न होगा कि पूर्व-जन्म में क्या था। यह ज्ञान रखते हुए भी संसार में एक-से-एक ज्ञानी, एक-से-एक प्रणवीर, एक-से-एक धर्मात्मा हो गए। क्या उनका जीवन सार्थक हुआ? यही सोचते-सोचते न जाने कब मेरी चेतना का अपहरण हो गया। जब मेरी आँखें खुली तो देखा कि एक छोटी-सी कुटी में मृगचर्म पर कम्बल ओढ़े पड़ा हुआ हूँ और एक पुरुष बैठा मेरे मुख की ओर वात्सल्य-दृष्टि से देख रहा है। मैंने इन्हें पहचान लिया। यह वही महात्मा थे, जिनके दर्शन के लिए मैं लालायित था। मुझे आँखें खोलते देखकर वह सदय भाव से मुस्कुराए और बोले–हिम-शैय्या कितनी प्रिय वस्तु है। पुष्प-शैय्या पर तुम्हें कभी इतना सुख मिला था?
मैं उठ बैठा और महात्मा के चरणों पर सिर रखकर बोला–आपके दर्शनों से जीवन सफल हो गया। आपकी दया न होती, तो शायद वहीं मेरा अन्त हो जाता।
महात्मा–अन्त कभी किसी का नहीं होता। जीवन अनन्त है। हाँ, अज्ञानवश हम ऐसा समझ लेते हैं।
मैं–मुझे आपके दर्शनों की बड़ी इच्छा थी। आप में अलौकिक शक्ति है।
महात्मा–इसीलिए ऐसा समझते हो कि तुमने मुझे शिला पर चढ़ते देखा है? यह तो अलौकिक शक्ति नहीं है। यह तो साधारण मनुष्य भी अभ्यास से कर सकता है।
मैं–आपने योग द्वारा ही यह बल प्राप्त किया होगा?
महात्मा–नहीं, मैं योंगी नहीं प्रयोगी हूँ। आपने डार्विन का नाम सुना होगा? पूर्व जन्म में मेरा ही नाम डार्विन था।
मैंने विस्मित होकर कहा–आप ही डार्विन थे?
महात्मा–हाँ, उन दिनों मैं प्राणिशास्त्र का प्रेमी था। अब प्राणशास्त्र का खोजी हूँ।
सहसा मुझे अपनी देह में एक अद्भुत् शक्ति का संचालन होता हुआ मालूम हुआ। नाड़ी की गति तीव्र हो गई, आँखों से ज्योति की रेखाएँ-सी निकलने लगीं। वाणी में ऐसा विकास हुआ, मानो कोई कली खिल गई हो। मैं फुर्ती से उठ बैठा और महात्माजी के चरणों पर झुकने लगा; किन्तु उन्होंने मुझे रोककर कहा–तुम मुझे शिलाओं पर देखकर विस्मित हो गए, पर वह समय आ रहा है, जब आनेवाली जाति जल, स्थल और आकाश में समान रीति से चल सकेगी। यह मेरा विश्वास है। पृथ्वी का क्षेत्र उन्हें छोटा मालूम होगा। वह पृथ्वी से अन्य पिण्डों में उतनी ही सुगमता से आ-जा सकेंगे, जैसे एक देश से दूसरे देश में।
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