उपन्यास >> कायाकल्प कायाकल्पप्रेमचन्द
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राजकुमार और रानी देवप्रिया का कायाकल्प....
चक्रधर–नहीं मनोरमा, तुम यह विद्या न सीखना। मुलम्मे की ज़रूरत सोने को नहीं होती।
मनोरमा–होती है बाबूजी, होती है। इससे सोने का मूल्य चाहे न बढ़े; पर चमक बढ़ जाती है। आपने महारानी की तीर्थयात्रा का हाल तो सुना ही होगा। अच्छा बताइए, आप इस रहस्य को समझते हैं?
चक्रधर–क्या इसमें भी कोई रहस्य है?
मनोरमा–और नहीं तो क्या! मैं परसों रात को बड़ी देर तक वहीं थी! हर्षपुर के राजकुमार आये हुए थे। उन्हें के साथ गयी हैं।
चक्रधर–खैर, होगा, तुमने क्या काम किया है? लाओ, देखूँ।
मनोरमा–एक छोटा-सा लेख लिखा है; पर आपको दिखाते शर्म आती है।
चक्रधर–तुम्हारे लेख बहुत अच्छे होते हैं। शर्म की क्या बात है?
मनोरमा ने सकुचाते हुए अपना लेख उनके सामने रख दिया और वहाँ से उठकर चली गयी। चक्रधर ने लेख पढ़ा, तो दंग रह गए। विषय था-ऐश्वर्य से सुख? वे क्या हैं? काल पर विजय, लोकमत पर विजय, आत्मा पर विजय। लेख में इन्हीं तीनों अंगों की विस्तार के साथ व्याख्या की गई थी। चक्रधर उन विचारों की मौलिकता पर मुग्ध तो हुए, पर इसके साथ ही उन्हें उनकी स्वच्छता पर खेद भी हुआ। ये भाव किसी व्यंग्य में तो उपयुक्त हो सकते थे, लेकिन एक विचारपूर्ण निबन्ध में शोभा न देते थे। उन्होंने लेख समाप्त करके रखा ही था कि मनोरमा लौट आयी और बोली–हाथ जोड़ती हूँ बाबूजी इस लेख के विषय में कुछ न पूछिएगा, मैं इसी के भय से चली गई थी।
चक्रधर–पूछना तो बहुत कुछ चाहता था, लेकिन तुम्हारी इच्छा नहीं है, तो न पूछूँगा। केवल इतना बता दो कि ये विचार तुम्हारे मन में क्योंकर आये? ऐश्वर्य का सुख विहार और विलास तो नहीं, यह तो ऐश्वर्य का दुरुपयोग है। यह तो व्यंग्य मालूम होता है।
मनोरमा–आप जो समझिए।
चक्रधर–तुमने क्या समझकर लिखा है?
मनोरमा–जो कुछ आँखों से देखा, वही लिखा।
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