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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


मंसाराम ने अब तक निर्मला की ओर ध्यान नहीं दिया था। निर्मला का ध्यान आते ही उसके रोंये खड़े हो गये। हाय उनका सरल स्नेह हृदय यह आघात कैसे सह सकेगा? आह! मैं कितने भ्रम में था। मैं उनके स्नेह को कौशल समझता था। मुझे क्या मालूम था कि उन्हें पिताजी का भ्रम शांमत करने के लिए मेरे प्रति इतना कटु व्यवहार करना पड़ता है। आह! मैंने उनपर कितना अन्याय किया है। उनकी दशा तो मुझसे भी खराब हो रही होगी।

मैं तो यहाँ चला आया, मगर वह कहाँ जायेंगी? जिया कहता था, उन्होंने दो दिन से भोजन नहीं किया। हरदम रोया करती हैं। कैसे जाकर समझाऊँ। वह पूछती हैं? क्यों बार -बार मुझे बुलाती हैं? कैसे कह दूँ कि माता मुझे तुझसे जरा भी शिकायत नहीं, मेरा दिल तुम्हारी तरफ से साफ है।

वह अब भी बैठी रो रही होंगी। कितना बड़ा अनर्थ है! बाबू जी को यह किया हो रहा हैं?

क्या इसी लिए विवाह किया था? एक बालिका की हत्या करने ही के लिए उसे लाये थे? इस कोमल पुष्प को मसल डालने ही के लिए तोड़ा था।

उनका उद्वार कैसे होगा! उस निरपराधिनी का मुख कैसे उज्ज्वल होगा? उन्हें केवल मेरे साथ स्नेह का व्यवहार करने के लिए यह दंड दिया जा रहा है। उनकी सज्जनता का उन्हें यह मिल रहा है। मै उन्हें इस प्रकार निर्दय आघात सहते देखकर बैठा रहूँगा? अपनी मान रक्षा के लिए न सही, उनकी आत्मा रक्षा के लिए इन प्राणों का बलिदान करना पड़ेगा। इसके सिवाय उद्वार का कोई उपाय नहीं। आह दिल में कैसे कैसे अरमान थे। वे सब खाक में मिला देने होंगे। एक सती पर सन्देह किया जा रहा है; और मेरे कारण! मुझे अपने प्राणों की रक्षा करनी होगी, यही मेरा कर्त्तव्य है। इसी में सच्ची वीरता है। माता, मै अपने रक्त से इस कालिमा को धो दूँगा। इसी में मेरा और तुम्हारा दोनों का कल्याण है।

वह दिन भर इन्हीं विचारों में डूबा रहा। शाम को उसके दोनों भाई आकर घर चलने के लिए आग्रह करने लगे।

सियाराम-चलते क्यों नहीं? मेरे भैया जी, चले न!

मंसाराम मुझे फुरसत नहीं है कि तुम्हारे कहने से चला चलूँ।

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