लोगों की राय

उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

364 पाठक हैं

अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


जिया.-आखिर कल तो इतवार है ही।

मंसा.-इतवार को भी काम है?

जिया.- अच्छा कल आओगे न!

मंसा.-नहीं, कल मुझे एक मैच में जाना है।

सिया.-अम्माँजी मूँग के लड्डू बना रही हैं। न चलोगे तो एक भी न पाओगे। हम तुम मिल के खा जायेंगे, जिया इन्हें न देंगे

जिया.- सच! नहीं ऐसा क्यों करेंगी। यहाँ आयीं तो बड़ी परेशानी होगी। तुम कह देना, वह कहीं मैंच देखने गये हैं।

जिया–मैं झूठ क्यों बोलने लगा। मैं कह दूँ, वह मुँह फुलाये बैठे थे। देख लेना, उन्हें साथ लाता हूँ कि नहीं।

सिया.-हम कह देंगे कि आज पढ़ने नहीं गए। पड़े-पड़े सोते रहे।

मंसाराम ने इन दूतों से कल आने का वादा करके गला छुड़ाया। जब दोनों चले गये तो फिर चिन्ता में डूबा। रात-भर उसे करवटें बदलते गुजरी छुट्टी का दिन भी बैठे -बैठे कट गया, उसे दिन भर शंका होती रहती है कि कहीं अम्माँजी सचमुच न चली आयें। किसी गाड़ी की खड़खड़ाहट सुनता, तो उसका कलेजा धक-धक करने लगता। कहीं आ तो नहीं गयीं?

छात्रालय में एक छोटा-सा औषधालय था। एक डॉक्टर साहब सन्ध्या समय एक घण्टे के लिए आ जाया करते थे। अगर कोई लड़का बीमार होता तो उसे दवा देते।

आज वह आये तो मंसाराम कुछ सोचता हुआ उनके पास जाकर खड़ा हो गया। वह मंसाराम को तो अच्छी तरह जानते थे। उसे देखकर आश्चर्य से बोले-यह तुम्हारी क्या हालत है जी? तुम तो मानो गले जा रहे हो। कहीं बाजार का चस्का तो नहीं पड़ गया? आखिर तुम्हें हुआ क्या? जरा यहाँ तो आओ।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book