उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
मंसाराम मुस्कराकर कहा–मुझे जिन्दगी का रोग है। आपके पास इसकी भी तो कोई दवा है?
डॉक्टर–मैं तुम्हारी परीक्षा करना चाहता हूँ। तुम्हारी तो सूरत ही बदल गई जी पहचान भी नहीं जाते।
यह कहकर उन्हेंने मंसाराम का हाथ पकड़ लिया और छाती पीठ आँखें, जीभ सब बारी बारी से देखीं। तब चिन्तित होकर बोले-वकील साहब से मैं आज ही मिलूँगा। तुम्हें थाइसिस हो रहा है। सारे लक्षण उसी के हैं।
मंसाराम ने बड़ी उत्सुकता से पूछा-कितने दिनों में काम तमाम हो जायेगा। डॉक्टर साहब?
डॉक्टर–कैसी बात करते हो जी! मैं वकील साहब से मिलकर तुम्हें किसी पहाड़ी जगह भेजने की सलाह दूँगा। ईश्वर ने चाहा तो तुम बहुत जल्द अच्छे हो जाओ बीमारी अभी पहले स्टेज में है।
मंसाराम–तब तो अभी साल दो साल की देर मालूम होती है। मैं तो इतना इन्तजार नहीं कर सकता। सुनिए, मुझे थायसिस- वाससिस कुछ नहीं है, न कोई दूसरी शिकायत ही है; आप बाबू को नाहक तरद्दुद में न डालिएगा। इस वक्त मेरे सिर दर्द है कोई दवा दीजिए। कोई ऐसी दवा हो, जिसमें नींद भी आ जाय। मुझे दो रात से नींद नहीं आती।
डॉक्टर ने जहरीली दवाइयों की आलमारी खोली और शीशी से थोड़ी-सी निकालकर मंसाराम को दी। मंसाराम ने पूछा–यह तो कोई जहर है? भला इसे कोई पी ले मर जाय?
डॉक्टर–नहीं मर तो नहीं जाय, पर सिर में चक्कर जूरुर आ जाय।
मंसा.-कोई ऐसी दवा भी इसमें है जिसे पीते ही प्राण निकल जायँ?
डॉक्टर–ऐसी एक दो नहीं कितनी ही दवाएँ हैं। यह जो शीशी देख रहे हो इसकी एक बूँद भी पेट में चली जाय तो जान न बचे। आनन-फानन में मौत हो जाय।
मंसा.-क्यों डॉक्टर साहब जो लोग जहर खा लेते हैं, उन्हें बड़ी तकलीफ होगी?
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