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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


डॉक्टर–सभी जहरों से तकलीफ नहीं होती। बाज तो ऐसे ही है कि पीते ही आदमी ठंडा हो जाता है। यह शीशी इसी किस्म की है, इसे पीते ही आदमी बेहोश हो जाता है। फिर उसे होश नहीं आता।

मंसाराम ने सोचा-तब तो प्राण देना बहुत आसान है। फिर क्यों लोग इतना डरते हैं। यह शीशी कैसे मिलेगी? अगर दवा का नाम पूछकर शहर के किसी दवा फरोश से लेना चाहूँ, तो वह कभी न देगा। ऊँह, उसके मिलने में कोई दिक्कत नहीं। यह मालूम हो गया कि प्राणों का अन्त बड़ी आसानी से किया जा सकता है। मंसाराम इतना प्रसन्न हुआ, मानो कोई इनाम पा गया हो। उसके दिल पर से एक बोझ-सा हट गया।

चिन्ता की मेघ राशि जो सिर पर मँडरा रही थी, छिन्न-भिन्न हो गई। महीनों बाद आज उसे मन में एक स्फूर्ति का अनुभव हुआ। लड़के थिएटर देखने जा रहे थे, निरीक्षक से आज्ञा ले ली थी। मंसाराम भी उनके साथ थिऐटर देखने चला गया। ऐसा खुश था मानो उससे ज्यादा सुखी जीव संसार में कोई नहीं है। थिऐटर में नकल देखकर तो वह हँसते-हँसते लोट गया। बार-बार तालियाँ बजाने और वन्स मोर की हाँक लगाने में पहला नम्बर उसी का था। गाना सुनकर वह मस्त हो जाता था, और ओहो हो! करके चिल्ला उठता था।

दर्शकों की निगाहें बार-बार उसकी तरफ उठ जाती थीं। थिऐटर के पात्र भी उसी की ओर ताकते थे और यह जानने को उत्सुक थे कि कौन महाशय इतने रसिक और भावुक हैं। उसके मित्रों को उसकी उच्छंखलता पर आश्चर्य हो रहा था। वह बहुत ही शांतिचित्त गम्भीर स्वभाव का युवक था। आज वह क्यों इतना हास्यशील हो गया है, क्यों उसके विनोद का पारावार नहीं है।

दो बजे रात को थिऐटर से लौटने पर भी उसका हास्योन्माद कम नहीं हुआ। उसने एक लड़के की चारपाई उलट दी, कई लड़कों के कमरे के द्वार बाहर से बन्द कर दिये और उन्हें भीतर से खट-पट करते सुनकर हँसता रहा। यहाँ तक कि छात्रालय के अध्यक्ष महोदय की नींद भी शोरगुल सुनकर खुल गई और उन्होंने मंसाराम की शरारत पर खेद प्रकट किया। कौन जानता है कि उसके अन्तस्थल में कितनी भीषण क्रांति हो रही है, संदेह के निर्दय तिरस्कार का लेशमात्र भी भय नहीं है। यह विनोद नहीं-उसकी आत्मा का करुणा और तिरस्कार विलाप है।

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