उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
जब और सब लड़के सो गए तो वह भी चारपाई पर लेटा लेकिन उसे नींद नहीं आई। एक क्षण के बाद वह बैठा और अपनी सारी पुस्तकें बाँधकर सन्दूक में रख दीं। जब मरना ही है तो पढ़ कर क्या होगा जिस जीवन में ऐसी-ऐसी बाधाएँ हैं-ऐसी-ऐसी यातनाएँ हैं उससे मृत्यु कहीं अच्छी!
यह सोचते-सोचते तड़का हो गया। तीन रात से वह एक क्षण भी न सोया था। इस वक्त वह उठा तो उसके पैर छर-थर काँप रहे थे और सिर में चक्कर-सा आ रहा था। आँखें जल रही थीं और शरीर के सारे अंग शिथिल हो रहे थे। एकाएक उसने भूँगी को रुमाल में कुछ लिए हुए एक कहार के साथ आते देखा। उसका कलेजा सन्न हो गया। हाय ईश्वर! वे आ गई! अब क्या होगा? भूँगी अकेले नहीं आई होगी? बग्घी जरूर बाहर खड़ी होगी? कहाँ तो उससे उठा न जाता था, कहाँ भूँगी को देखते ही दौड़ा और घबराई हुई आवाज में बोला-अम्माँजी भी आई हैं, क्या रे? जब मालूम हुआ कि अम्माँ जी नहीं आयी, तब उसका चित्त शांत हुआ। भूँगी ने कहा–भैया! तुम कल गये नहीं, बहूजी तुम्हारी राह देखती रह गई। उनसे क्यों रूठे हो भैया? कहती है, मैंने उनकी कुछ भी शिकायत नहीं की है। मुझसे आज रोकर कहने लगीं- उनके पास यह मिठाई लेती जा और कहना, मेरे कारण क्यों घर छोड़ दिया है? कहाँ रख दूँ यह थाली?
मंसाराम ने रुलाई से कहा–यह थाली अपने सिर पर पटक दे, चुड़ौल? वही से चली है मिठाई लेकर। खबरदार, जो फिर कभी इधर आई। सौगात लेकर चली है जाकर कह देना, मुझे उनकी मिठाई नहीं चाहिए। जाकर कह देना, तुम्हारा घर है तुम रहो, वहाँ वे बड़े आराम से हैं। खूब खाते और मौज-मस्ती करते हैं। सुनती है, बाबूजी के मुँह पर कहना, समझ गई! मुझे किसी का डर नहीं है, और जो करना चाहें, कर डालें, जिससे दिल मे कोई अरमान न रह जाय। कहें तो इलाहाबाद, लखनऊ, कलकत्ता चला जाऊँ। मेरे लिए जैसे बनारस वैसे दूसरा शहर। यहाँ क्या रखा है?
भूँगी-भैया, मिठाई रख लो, नहीं रो रोकर मर जायँगी। सच मानो रो-रोकर मर जायँगी।
मंसाराम ने आँसुओं के उठते हुए वेग को दबाकर कहा–मर जायँगी, मेरी बला से कौन मुझे बड़ा दे दिया है, जिसके लिए पछताऊँ। मेरा तो उन्होंने सर्वनाश कर दिया। कह देना, मेरे पास कोई संदेशा न भेजे, कुछ जरूरत नहीं।
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