उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
भूँगी-भैया तुम तो कहते हो, यहाँ खूब खाता हूँ और मौज करता हूँ, मगर देह तो आधी भी नहीं रही। जैसे आये थे, उससे आधे भी न रहे।
मंसाराम–यह तेरी आँखों का फेर है। देखना दो- चार दिन में मुटाकर कोल्हू हो जाता हूँ कि नहीं। उनसे यह भी देना कि रोना-धोना बन्द करें। जो मैंने सुना कि रोती हैं, और खाना नहीं खाती, मुझसे बुरा कोई नहीं। मुझे घर से निकाला है, तो आप चैन से रहें। चली हैं, प्रेम दिखाने! मैं ऐसे त्रिया-चरित्र बहुत पढ़े बैठा हूँ।
भूँगी चली गई। मंसाराम को उससे बातें करते ही कुछ ठण्ड मालूम होने लगी थी। यह अभिनय करने के लिए उसे अपने मनोभावों को जितना दबाना पड़ा था, वह उसके लिए असाध्य था। उसका आत्म-सम्मान उसे इस कुटिल व्यवहार का जल्द-से-जल्द अन्त कर देने के लिए बाध्य कर रहा था; पर इसका परिणाम क्या होगा? निर्मला क्या यह आघात सह सकेगी? अब तक वह मृत्यु की कल्पना करते समय किसी अन्य प्राणी का विचार न करता था, पर आज एकाएक ज्ञान हुआ कि मेरे जीवन के साथ एक और इनकी जान ली। यह समझकर उसका कोमल हृदय क्या फट न जायेगी? उसका जीवन तो अब भी संकट में हैं। संदेह के कठोर पंजे में फँसी हुई अबला क्या अपने को हत्यारिणी समझकर बहुत दिन जीवित रह सकती है?
मंसाराम ने चारपाई पर लेट कर लिहाफ ओढ़ लिया, फिर भी सर्दी से कलेजा काँप रहा था। थोड़ी ही देर में उसे जोर से ज्वर चढ़ आया- वह बेहोश हो गया। इस अचेत दशा में उसे भाँति-भाँति के स्वप्न दिखाई देने लगे। थोड़ी-थोड़ी देर के बाद चौंक पड़ता –आँखें खुल जातीं फिर बेहोश हो जाता।
सहसा वकील साहब की आवाज सुनकर वह चौंक पड़ा। हाँ, वकील साहब ही की आवाज थी। उसने लिहाफ फेंक दिया और चारपाई से उत्तर कर नीचे खड़ा हो गया। उसके मन में एक आवेग हुआ कि इस वक्त उनके सामने प्राण दे दूँ। उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं मर जाऊँ, तो इन्हें सच्ची खुशी होगी। शायद इसीलिए वह देखने आये हैं मेरे मरने मे कितनी देर है। वकील साहब ने उसका हाथ पकड़ लिया, जिससे वह गिर न पड़े और पूछा-कैसी तबीयत है लल्लू! लेटे क्यों न रहे! लेट जाओ, तुम खड़े क्यों हो गये?
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