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निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


मंसाराम–मेरी तबीयत तो अच्छी है। आपको व्यर्थ ही कष्ट हुआ।

मुंशीजी ने कुछ जवाब न दिया। लड़के की दशा देखकर उनकी आँखों से आँसू निकल आये। वह हष्ट-पुष्ट बालक, देखकर चित्त प्रसन्न हो जाता था, अब सूखकर काँटा हो गया था। पाँच-छः दिन में ही वह इतना दुबला हो गया था कि उसे पहचानना कठिन था। मुंशीजी ने उसे आहिस्ता से चारपाई पर लिटा दिया और लिहाफ अच्छी तरह उढाकर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। कहीं लड़का हाथ से तो न जायगा। यह ख्याल करके वह शोक में विह्लय हो गये और स्टूल पर बैठकर फूट-फूटकर रोने लगे। मंसाराम भी लिहाफ में मुँह लपेटे रो रहा था। अभी थोड़े ही दिन पहले उसे देखकर पिता का हृदय गर्व से फूल उठता था; लेकिन आज उसे उस दारुण दशा में देखकर भी वह सोच रहा है कि इसे घर ले चलूँ या नहीं। क्या यहाँ दवा नहीं हो सकती? मैं यहाँ चौबीसों घंटे बैठा रहूँगा।

डॉक्टर साहब यहाँ हैं ही। कोई दिक्कत नहीं न होगी। घर ले चलने में उन्हें बाधाएँ-ही-बाधाएँ दिखाई देती थी; सबसे बड़ा भय यह था कि वहाँ निर्मला इसके पास हरदम बैठी रहेगी, और मैं मना न कर सकूँगा- यह उनके लिए असह्य था।

इतने में अध्यक्ष ने आकर कहा–मैं तो समझता हूँ, आप इन्हें अपने साथ ले जायँ। गाड़ी हैं ही, कोई तकलीफ न होगी। यहाँ अच्छी तरह देखभाल न हो सकेगी।

मुंशीजी–हाँ, आया तो मैं इसी ख्याल से था; लेकिन इनकी हालत बहुत ही नाजुक मालूं होती है। जरा-सी असावधानी होने से सरसाम हो जाने का भय है।

अध्यक्ष-यहाँ से इन्हें ले जाने में थोड़ी-सी दिक्कत जरूर हैं; लेकिन यह तो आप खुद सोच सकते हैं कि घर पर जो आराम मिल सकता है, वह यहाँ किसी तरह नहीं मिल सकता। इसके अतिरिक्त तो मैं हेडमास्टर से आज्ञा ले लूँ। मुझे इनको यहाँ से इस हालत में ले जाना किसी तरह मुनासिक नहीं मालूम होता।

अध्यक्ष ने हेडमास्टर का नाम सुना, तो समझे कि यह महाशय धमकी दे रहे हैं। जरा तिनककर बोले- हेडमास्टर नियम विरुद्ध कोई बात नहीं कर सकते। मै इतनी बड़ी जिम्मेदारी कैसे ले सकता हूँ?

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