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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


अब क्या होगा क्या घर ले जाना पड़ेगा? यहाँ रखने का तो बहाना था कि ले जाने से बीमारी बढ़ जाने की शंका है। यहाँ से ले जाकर अस्पताल में ठहराने के लिए कोई बहाना नहीं है। जो सुनेगा, वह यही कहेगा कि डॉक्टर की फीस बचाने के लिए लड़के को अस्पताल फेंक आये; पर अब ले जाने के सिवा और कोई उपाय न था। अगर अध्यक्ष महोदय इस वक्त रिश्वत लेने पर तैयार हो जाते, तो शायद दो-चार साल का बेतन ले लेते लेकिन कायदे के पाबन्द लोगों में इतनी बुद्धि, इतनी चतुराई कहाँ! अगर इस वक्त मुंशीजी को आदमी ऐसा उज्र सुझा देता, जिसमें उन्हें मंसाराम को घर न ले जाना पड़े तो वह आजीवन उसका एहसान मानते।

सोचने का समय भी नहीं था। अध्यक्ष महोदय शैतान की तरह सिर पर सवार थे। विवश होकर मुंशीजी ने दोनों साइसों को बुलाया और मंसाराम को उठाने लगे। मंसाराम अर्द्धचेतना की दशा में था, चौंककर बोला-क्या है? कौन है?

मुंशीजी–कोई नहीं है बेटा! मैं तुम्हें घर ले चलना चाहता हूँ, आओ, गोद में उठा लूँ।

मंसाराम–मुझे क्यों घर ले चलते हैं? मैं वहीं नहीं जाऊँगा।

मुंशीजी–यहाँ तो रह नहीं सकते, नियम ही ऐसा है।

मंसाराम–कुछ भी हो, मैं वहाँ न जाऊँगा। मुझे और कहीं ले चलिए-किसी पेड़ के नीचे किसी झोपड़े में, जहाँ चाहे रखिए; पर घर न ले चलिए।

अध्यक्ष ने मुंशीजी से कहा–आप इन बातों का ख्याल न करें, यह तो होश में नहीं है।

मंसाराम–कौन होश में नहीं है? मैं होश में नहीं हूँ? किसी को गालियाँ देता हूँ? दाँत काटता हूँ? क्यों होश में नहीं हूँ? मुझे यहीं पड़ा रहने दीजिए, जो कुछ होना होगा यही होगा, अगर ऐसा है तो मुझे अस्पताल ले चलिए, मैं वहाँ पड़ा रहूँगा। जीना होगा, जीऊँगी मरना होगा, मरूँगा; लेकिन घर किसी तरह भी न जाऊँगा।

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