उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
यह जोर पाकर मुंशीजी फिर अघ्यक्ष से मिन्नतें करने लगे, लेकिन वह कायदे का पावन्द आदमी कुछ सुनता ही नहीं था। अगर छूत की बीमारी हुई और किसी दूसरे लड़के को छूत लग गई, तो कौन उसका जवाबदेह होगा। तर्क के सामने मुंशीजी की कानूनी दलीलें भी मात हो गयीं।
आखिर मुंशीजी ने मंसाराम से कहा–बेटा, तुम्हें घर चलने से क्यों इनकार हो रहा है? वहाँ तो सभी तरह का आराम रहेगा। मुंशीजी ने कहने को तो यह बात कह दी लेकिन डर रहे थे कि कहीं सचमुच मंसाराम चलने पर राजी न हो जाय। मंसाराम को अस्पताल में रखने का कोई बहाना खोज रहे थे और उसकी जिम्मेदारी मंसाराम ही के सिर डालना चाहते थे। यह अध्यक्ष के सामने की बात थी; वह इस बात की साक्षी दे सकते थे कि मंसाराम अपनी जिद से अस्पताल जा रहा है। मुंशीजी का इसमें लेशमात्र भी दोष नहीं है।
मंसाराम ने झल्लाकर कहा–नहीं नहीं सौ बार नहीं! मैं घर नहीं जाऊँगा। मुझे अस्पताल ले चलिए और घर के सब आदमियों को मना कर दीजिए कि मुझे देखने ने आयें। मुझे कुछ नहीं हुआ है, बिलकुल बीमार नहीं हूँ। आप मुझे छोड़ दीजिए, मैं अपने पाँव से चल सकता हूँ।
वह उठ खड़ा हुआ। और उन्मत की भाँति द्वार की ओर चला, लेकिन पैर लड़खड़ा गये। यदि मुंशीजी ने संभाल न लिया होता, तो उसे बड़ी चोट आती। दोनों नौकरों की मदद से मुंशीजी उसे बघ्गी के पास लाये और अन्दर बिठा दिया।
गाड़ी अस्पताल की ओर चली। वही हुई जो मुंशीजी चाहते थे इस शोक में भी उनका चित्त सन्तुष्ट था। उसका अपनी इच्छा से अस्पताल जा रहा था। क्या इस बात का प्रमाण नहीं था कि घर से इसे कोई स्नेह नहीं है? क्या इससे यह सिद्ध नहीं होता कि मंसाराम निर्दोष है? वह उस पर अकारण ही भ्रम कर रहे थे।
लेकिन जरा ही देर में इस दृष्टि की जगह उनके मन में ग्लानि का भाव जाग्रत हुआ। वह अपने प्राण-प्रिय पुत्र को घर न ले जाकर अस्पताल लिये जा रहे थे। उनके विशाल भवन मे उनके पुत्र के लिए जगह न थी, इस दशा में भी जब कि उसका जीवन संकट में पड़ा हुआ था। कितनी विडम्बना है।
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