लोगों की राय

उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

Like this Hindi book 2 पाठकों को प्रिय

364 पाठक हैं

अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


डॉक्चर-आप जरा दिल को तस्कीन दीजिए। आप बुजुर्ग आदमी है; यों हाय हाय करने और डॉक्टरों की फौज जमा करने से कोई नतीजा न निकलेगा। शांति होकर बैठिए, मैं शहर के लोगों को बुला रहा हूँ देखिए क्या कहते हैं? आप तो खुद ही बदहवास हुए जाते हैं।

मुंशीजी–अच्छा डॉक्टर साहब! मैं अब न बोलूँगा, जबान तक न खोलूँगा आप जो चाहें जो करें, बच्चा अब आपके हाथ में हैं। आप ही उसकी रक्षा कर सकते हैं। मैं इतना ही चाहता हूँ कि जरा इसे होश आ जाय मुझे पहचान ले, मेरी बातों समझने लगे। क्या कोई ऐसी सजीवनी बूटी नहीं? मैं इससे दो-चार बातें कर लेता।

यह कहते-कहते मुंशीजी आवेश में आकर मंसाराम से बोले-बेटा जरा आँखें खोलों कैसा जी है? मैं तुम्हारे पास बैठा हुआ रो रहा हूँ, मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है, मेरा दिल तुम्हारी ओर से साफ है।

डॉक्टर–फिर आपने अनर्गल बातें करनी शुरू की। अरे साहब, आप बच्चे नहीं है बुजुर्ग आदमी हैं, जरा धैर्य से काम लीजिए।

मुंशीजी–अच्छा डॉक्टर साहब, अब न बोलूँगा, खता हुई। आप जो चाहे कीजिए। मैंने सब कुछ आप पर छोड़ दिया है। कोई ऐसा उपाय नहीं है जिससे मैं इससे इतना समझ सकूँ कि मेरा दिल साफ है? आप ही कह दीजिए डॉक्टर साहब कह दीजिए, तुम्हारा अभागा पिता बैठा रो रहा है। उसका दिल तुम्हारी तरफ से बिलकुल साफ है। उसे कुछ भ्रम हुआ था। वह अब दूर हो गया। बस, इतना ही कह दीजिए! मैं और कुछ नहीं चाहता। मैं चुपचाप बैठा हूँ। जबान तक नहीं खोलता; लेकिन आप इतना जरूर कह दीजिए।

डॉक्टर–ईश्वर के लिए बाबू साहब जरा सब्र कीजिए, वरना मुझे मजबूर होकर आपसे कहना पड़ेगा कि घर जाइए। मैं जरा दफ्तर में जाकर डॉक्टरों को खत लिख रहा हूँ। आप चुपचाप बैठे रहिएगा।

निर्दयी डॉक्टर! जवान बेटे की यह दशा देखकर कौन पिता है, जो धैर्य से काम लेगा? मुंशीजी बहुत गम्भीर स्वभाव के मनुष्य थे। यह भी जानते थे कि इस वक्त हाय-हाय मचाने से कोई नतीजा नहीं; लेकिन फिर भी इस समय शांत बैठना उनके लिए असंभव था। अगर दैव गति से यह बीमारी होती, तो वह शांत हो सकते थे, दूसरो को समझा सकते थे, खुद डॉक्टरों को बुला सकते थे। लेकिन क्या यह जानकर कर भी धैर्य रख सकते थे, खुद डॉक्टरों को बुला सकते थे।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book