उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
कि यह सब आग मेरी लगाई हुई है? कोई पति इतना वज्र हृदय हो सकता है? उनका रोम-रोम इस समय उन्हें धिक्कार रहा था। उन्होंने सोचा, मुझे यह कल्पना कर उत्पन्न ही क्यों हुई? मैंने क्यों बिना किसी प्रत्यक्ष प्रमाण के ऐसी भीषण कल्पना कर डाली? अच्छा मुझे उस दशा में क्या करना चाहिए था। जो कुछ उन्होंने किया उसके सिवा वह और क्या करते-इसका वह निश्चय न कर सके। वास्तव में विवाह के बन्धन में पड़ना ही अपने पैरों में कुल्हाड़ी मारना था। हाँ, यही सारे उपद्रव की जड़ है।
मगर मैंने यह कोई अनोखी बात नहीं की। सभी स्त्री-पुरुष विवाह करते हैं। उनका जीवन आनन्द से कटता है। आनन्द की इच्छा से ही तो हम विवाह करते हैं। मुहल्ले में सैकड़ों आदमियों ने दूसरी, तीसरी, चौथी यहाँ तक कि सातवीं शादियाँ की हैं और मुझसे भी कहीं अधिक अवस्था में। वह जब तक जिये आराम से ही जिये। यह भी नहीं हुआ कि सभी स्त्री से पहले मर गये हों। दूहाद-तिहाद होने पर भी कितने ही फिर रँडुए हो गए। अगर मेरी जैसी दशा सब की होती, तो विवाह का नाम ही कौन लेता? मेरे पिता जी ने पचपनवें वर्ष में विवाह किया था और मेरे जन्म के समय उनकी अवस्था साठ से कम न थी। बाँ इतनी बात जरूर है कि तब और अब में कुछ अन्तर हो गया है।
पहले स्त्रियाँ पढ़ी लिखी न होती थी। पति चाहे कैसा ही हो, उसे पूज्य समझती थीं; यह बात हो कि पुरुष सबकुछ देखकर भी बेहायाई से काम लेता हो, अवश्य यही बात है। जब युवक वृद्धा के साथ प्रसन्न नहीं रह सकता, तो युवती क्यों किसी वृद्ध के साथ प्रसन्न रहने लगी; लेकिन मैं तो कुछ ऐसा बुढ्डा न था। मुझे देखकर कोई चालीस से अधिक नहीं बका सकता। कुछ भी हो, जवानी ढल जाने पर जवान औरत से विवाह करके कुछ न कुछ बेहयाई जरूर करनी पड़ती है, इसमें सन्देह नहीं। स्त्री स्वभाव से लज्जाशील होती है। कुलटाओं की बात तो दूसरी है, पर साधारणः स्त्री-पुरुष से कहीं ज्यादा संयमशील होती है। जोड़ का पति चाहे पर पुरुष से हँसी दिल्लगी कर ले, पर उसका मन शुद्ध रहता है। बेजोड़ चित्त दुःखी रहता है। वह पक्की दीवार है, उसमे सबरी का असर नहीं होता; यह कच्ची दीवार है और उसी वक्त तक खड़ी रहती है, जब तक इस पर सबरी चलाई जाय।
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