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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


इन्हीं विचारों में पड़े-पड़े मुंशीजी को एक झपकी आई। मन के भावों ने तत्काल स्वप्न का रुप धारण कर लिया। क्या देखते हैं कि उनकी पहली स्त्री मंसाराम के सामने खड़ी कह रही है- ‘स्वामी, यह तुमने क्या किया? जिस बालक को मैंने अपना रक्त पिला-पिलाकर पाला, उसको तुमने इतनी निर्दयता से मार डाला। ऐसे आदर्श चरित्र बालक पर तुमने इतना घोर कलंक लगा दिया? अब बैठे क्या बिसूरते हो? तुमने उससे हाथ धो लिया। मैं तुम्हारे निर्दय हाथों से छीनकर उसे अपने साथ लिये जाती हूँ। तुम तो इतने शक्की कभी न थे। क्या विवाह करते ही शक को भी गले बाँध लाये? इस कोमल हृदय पर इतना आघात! इतना भीषण कलंक! इतना बड़ा अपमान सहकर जीने वाले कोई बेहया होंगे। मेरा बेटा नहीं सह सकता!’ यह कहते-कहते उसने बालक को गोद में उठा लिया और चली! मुंशीजी ने रोते हुए उसकी गोद से मंसाराम को छीनने के लिए हाथ बढ़ाया, तो आँखें खुल गईं और डॉक्टर लाहिरी, डॉक्टर भाटिया आदि आधे दर्जन डॉक्टर उसको सामने खड़े दिखाई दिये।

१२

तीन दिन गुजर गये और मुंशीजी घर न आये। रुक्मिणी दोनों वक्त अस्पताल जाती और मंसाराम को देख आती थीं। दोनों लड़कें भी जाते थे; पर निर्मला कैसे जाती? उसके पैरों में तो बेड़ियाँ पड़ी हुई थीं। वह मंसाराम की बीमारी का हाल-चाल जानने के लिये व्यग्र रहती थी; यदि रुक्मिणी से पूछती थी, तो ताने मिलते थे और लड़कों से पूछती तो बेसिर-पैर की बातें करने लगते थे। एक बार खुद जाकर देखने के लिये उसका चित्त व्याकुल हो रहा था। उसे यह भय होता था कि संदेह ने कहीं मुंशीजी के पुत्र-प्रेम को शिथिल न कर दिया हो, कहीं उनकी कृपणता ही तो मंसाराम के अच्छे होने में बाधक नहीं रही हो? डॉक्टर किसी के सगे नहीं होते, उन्हें तो अपने पैसों से काम है, मुर्दा दोजख में जाय या बिहिश्त में।

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