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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


उसके मन में प्रबल इच्छा होती थी कि जाकर अस्पताल के डॉक्टर को एक हजार की थैली देकर कहे। इन्हें बचा लीजिए, यह थैली आपकी भेंट है। पर उसके पास न तो इतने रुपये ही थे, न इतना साहस ही था। अब भी यदि वहाँ पहुँच सकती, तो मंसाराम अच्छा हो जाता। उसकी जैसी सेवा-शुश्रुषा होनी चाहिए थी वैसी नहीं हो रही है। नहीं तो क्या तीन दिन तक ज्वर ही न उतरता? यह दैहिक ज्वर नहीं, मानसिक ज्वर है। और चित्त के शान्त होने ही से इसका प्रकोप शान्त हो सकता है। अगर वह वहाँ रात-भर बैठी रह जाती और मुंशीजी जरा भी मन मैला न करते, तो कदाचित् मंसाराम को विश्वास हो जाता कि पिता जी का दिल साफ है, और फिर अच्छे होने में देर न लगती। लेकिन ऐसा होगा? मुंशीजी उसे वहाँ देखकर प्रसन्नचित्त रह सकेंगे? क्या अब भी उनका दिल साफ नहीं हुआ? यहाँ से जाते समय तो ऐसा ज्ञात हुआ था कि वह अपने प्रमाद पर पछता रहे हैं। ऐसा तो न होगा कि उसके वहाँ जाते ही मुंशीजी का संदेह फिर भड़क उठे और बेटे की जान लेकर ही छोड़ें?

इस दुविधा में पड़े-पड़े तीन दिन गुजर गये, और न घर में चूल्हा जला, न किसी ने कुछ खाया। लड़कों के लिए बाजार से पूरियाँ ली जाती थीं, रुक्मिणी और निर्मला भूँखी ही सो जाती थीं। उन्हें भोजन की इच्छा ही न होती।

चौथे दिन जियाराम स्कूल से लौटा, तो अस्पताल होता हुआ घर आया। निर्मला ने पूछा–क्यों भैया अस्पताल भी गये थे? आज क्या हाल है? तुम्हारे भैया उठे या नहीं?

जियाराम रुआँसा होकर बोला–आम्माँजी, आज तो वह कुछ बोलते-चालते ही न थे। चुपचाप चारपाई पर पड़े जोर-जोर से हाथ-पाँव पटक रहे थे।

निर्मला के चेहरे का रंग उड़ गया। घबराकर पूछा–तुम्हारे बाबूजी वहाँ न थे?

जियाराम–ते क्यों नहीं? आज वह बहुत रोते थे।

निर्मला का कलेजा धक्-धक् करने लगा। पूछा–डॉक्टर लोग वहाँ न थे?

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