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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


जियाराम–डॉक्टर भी खड़े थे और आपस में कुछ सलाह कर रहे थे। सबसे वड़ा सिविल सर्जन अंग्रेजी में कह रहा था कि मरीज की देह मंे कुछ ताजा खून डालना चाहिए। इस पर बाबूजी ने कहा–मेरी देह से जितना खून चाहें ले लीजिए। सिविल सर्जन ने हँसकर कहा–आपके ब्लड से काम न चलेगा किसी जवान आदमी का ब्लड चाहिए। आखिर उन्हें पिचकारी से कोई दवा भैया के बाजू में डाल दी। चार अंगुल से कम की सुई न रही होगी; पर भैया मिनके तक नहीं। मैंने तो मारे डर के आँखें बन्द कर लीं।

बड़े-बड़े महान् संकल्प आवेश में ही जन्म लेते हैं। कहाँ तो निर्मला भय से सूखी जाती थी, कहाँ उसके मुँह पर दृढ़ संकल्प की आभा झलक पड़ी। उसने अपनी देह का ताजा खून देने का निश्चय कर लिया। अगर उसके रक्त से मंसाराम के प्राण बच जाँय, तो वह बड़ी खुशी से उसकी अंतिम बूँद तक दे डालेगी। अब उसका जो जी चाहे समझें, वह कुछ परवाह न करेगी। उसने जियाराम से कहा–तुम लपककर एक एक्का बुला लो, मैं अस्पताल जाऊँगी।

जियाराम–वहाँ तो इस वक्त बहुत से आदमी होंगे। जरा रात हो जाने दीजिए।

निर्मला–नहीं, तुम अभी एक्का बुला लो।

जियाराम–कहीं बाबूजी बिगड़े न?

निर्मला–बिगड़ने दो। तुम अभी जाकर सवारी लाओ।

जिया–मैं कह दूँगा, अम्माँजी ही ने मुझसे सवारी मँगाई थी।

निर्मला–कह देना।

जियाराम तो उधर ताँगा लाने गया, इतनी देर में निर्मला ने सिर में कंघी की, जूड़ा बाँधा, कपड़े बदले, आभूषण पहने, पान खाया और द्वार पर आकर ताँगे की राह देखने लगी।

रुक्मिणी अपने कमरे में बैठी हुई थीं। उसे इस तैयारी से आते देखकर बोली–कहाँ जाती हो, बहू?

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