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निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


निर्मला–जरा अस्पताल तक जाती हूँ।

रुक्मिणी–वहाँ जाकर क्या करोगी?

निर्मला–कुछ नहीं, करूँगी क्या? करने वाले तो भगवान हैं। देखने को जी चाहता है।

रुक्मिणी–मैं कहती हूँ, मत जाओ।

निर्मला ने विनीत भाव से कहा–अभी चली आऊँगी; दीदीजी। जियाराम कह रहे हैं कि इस वक्त उनकी हालत अच्छी नहीं है। जी नहीं मानता, आप भी चलिए न?

रुक्मिणी–मैं देख आई हूँ। इतना ही समझ लो कि अब बाहरी खून ही पहुँचाने पर ही जीवन की आशा है। कौन अपना ताजा खून देगा, और क्यों देगा? उसमें भी तो प्राणों का भय है?

निर्मला–इसीलिए तो मैं जाती हूँ! मेरे खून से क्या काम न चलेगा?

रुक्मिणी–चलेगा क्यों नहीं, जवान ही का तो खून चाहिए, लेकिन तुम्हारे खून से मंसाराम की जान बचे, इससे यह कहीं अच्छा है कि उसे पानी में बहा दिया जाय।

ताँगा आ गया। निर्मला और जियाराम दोनों जा बैठे। ताँगा चला।

रुक्मिणी द्वार पर खड़ी देर तक रोती रही। आज पहली बार उसे निर्मला पर दया आई, उसका बस होता तो वह निर्मला को बाँध रखतीं। करुणा और सहानुभूति का आवेश उसे कहाँ लिये जाता है, यह वह अप्रकट रूप से देख रही थीं। आह! यह दुर्भाग्य की प्रेरणा है। यह सर्वनाश का मार्ग है।

निर्मला–अस्पताल पहुँची, तो दीपक जल चुके थे। डॉक्टर लोग आपनी राय देकर विदा हो चुके थे। मंसाराम का ज्वर कुछ कम हो गया था। वह टकटकी लगाए हुए द्वार की ओर देख रहा था। उसकी दृष्टि उन्मुक्त आकाश की ओर लगी हुई थी, मानों किसी देवता की प्रतीक्षा कर रहा हो! वह कहाँ है, किस दशा में है, इसका उसे कुछ ज्ञान न था।

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