उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
सहसा निर्मला को देखते ही वह चौंककर उठ बैठा। उसकी समाधि टूट गई। उसकी विलुप्त चेतना प्रदीप्त हो गई। उसे अपनी स्थिति का, अपनी दशा का ज्ञान हो गया, मानों कोई भूली हुई बात याद आ गई हो। उसने आँखें फाड़ कर निर्मला को देखा और मुँह फेर लिया।
एकाएक मुंशीजी तीव्र स्वर में बोले- तुम, यहाँ क्या करने आईं? निर्मला आवाक् रह गई। वह बतलाये कि क्या करने आई? इतने सीधे से प्रश्न का भी वह क्या कोई जवाब दे सकी? वह क्या करने आई थी? इतना जटिल प्रश्न किसके सामने आया होगा? घर का आदमी बीमार है, उसे देखने आई है, यह बात क्या बिना पूछे मालूम न हो सकती थी? फिर प्रश्न क्यों?
वह हतबुद्धि-सी खड़ी रही, मानों संज्ञाहीन हो गई हो उसने दोनों लड़कों से मुंशीजी के शोक और संताप की बातें सुनकर यह अनुभव किया था कि अब उनका दिल साफ हो गया है। अब उसे ज्ञात हुआ कि वह भ्रम था। हाँ, वह महाँभ्रम था। अगर वह जानती कि आँसुओं की दृष्टि ने भी संदेह की अग्नि शान्त नहीं की, तो वह कदापि न आती। वह कुढ़-कुढ़कर मर जाती, घर से पाँव न निकालती।
मुंशीजी ने फिर वही प्रश्न किया- तुम यहाँ क्यों आईं?
निर्मला ने निःशंक भाव से उत्तर दिया-आप यहाँ क्या करने आये हैं?
मुंशीजी के नथुने फड़कने लगे। वह झल्लाकर चारपाई से उठे और निर्मला का हाथ पकड़कर बोले- तुम्हारे यहाँ आने की कोई जरूरत नहीं। जब मैं बुलाऊँ तब आना। समझ गईं?
अरे! यह क्या अनर्थ हुआ! मंसाराम जो चारपाई से हिल भी न सकता था, उठकर खड़ा हो गया और निर्मला के पैरों पर गिरकर रोते हुए बोला–अम्माँजी इस अभागे के लिए आपको व्यर्थ इतना कष्ट हुआ। मैं आपका स्नेह कभी न भूलूँगा। ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि मेरा पुनर्जन्म आपके गर्भ से हो, जिससे मैं आपके ऋण से उऋण हो सकूँ। ईश्वर जानता है, मैंने आपको विमाता नहीं समझा। मैं आपको अपनी माता समझता रहा। आपकी उम्र मुझसे बहुत ज्यादा न हो, लेकिन आप, मेरी माता के स्थान पर थीं, और मैंने सदैव आपको इसी दृष्टि से देखा…. अब नहीं बोला जाता अम्माँजी, क्षमा कीजिए! यह अंतिम भेंट हैं।
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