उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास) निर्मला (उपन्यास)प्रेमचन्द
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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…
निर्मला ने अश्रु-प्रवाह को रोकते हुए कहा–तुम ऐसी बातें क्यों करते हो? दो-चार दिन में अच्छे हो जाओगे।
मंसाराम ने क्षीण स्वर में कहा–अब जीने की इच्छा नहीं, और न बोलने की शक्ति ही है।
यह कहते-कहते मंसाराम अशक्त होकर वहीं जमीन पर लेट गया। निर्मला ने पति की ओर निर्भय नेत्रों से देखते हुए कहा–डॉक्टर ने क्या सलाह दी?
मुंशीजी–सब-के-सब भंग खा गए हैं, कहते हैं ताजा खून चाहिए।
निर्मला–ताजा खून मिल जाय, तो प्राण-रक्षा हो सकती है?
मुंशीजी ने निर्मला की ओर तीव्र नेत्रों से देखकर कहा–मैं ईश्वर नहीं हूँ, और न डॉक्टर ही को ईश्वर समझता हूँ।
निर्मला–ताजा खून तो ऐसी अलभ्य वस्तु नहीं!
मुंशीजी–आकाश के तारे भी तो अलभ्य नहीं! मुँह के सामने खंदक क्या चीज है।
निर्मला–मैं अपना खून देने को तैयार हूँ। डॉक्टर को बुलाइए।
मुंशीजी ने विश्मित होकर कहा–तुम!
निर्मला–हाँ, क्या मेरे खून से काम न चलेगा?
मुंशीजी–तुम अपना खून दोगी? नहीं, तुम्हारे खून की जरूरत नहीं। इसमें प्राणों का भय है?
निर्मला–मेरे प्राण और किस दिन काम आयेंगे?
मुंशीजी ने सजल नेत्र होकर कहा–नहीं निर्मला, उसका मूल्य अब मेरी निगाहों में बहुत बढ़ गया है। आज तक वह मेरे भोग की वस्तु थी, आज से वह मेरी भक्ति की वस्तु है। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है, क्षमा करो।
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