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उपन्यास >> निर्मला (उपन्यास)

निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…

१३

जो होना था हो गया, किसी की कुछ न चली। डॉ. साहब निर्मला की देह से रक्त निकालने की चेष्टा कर ही रहे थे कि मंशाराम अपने उज्जवल चरित्र की अन्तिम झलक दिखाकर इस भ्रम-लोक से विदा हो गया। कदाचित् इतनी देर तक उसके प्राण निर्मला की राह देख रहे थे। उसे निष्कलंक सिद्ध किये बिना वे देह को कैसे त्याग देते? अब उनका उद्देश्य पूरा हो गया। मुंशी जी को निर्मला के निर्दोष होने का विश्वास हो गया। पर कब? जब हाथ तीर से निकल चुका था-जब मुसाफिर ने रकाब में पांव डाल लिया था।

पुत्र-शोक में मुंशीजी का जीवन भार-स्वरूप हो गया। उस दिन से फिर उनके होठों पर हँसी न आयी। यह जीवन अब उन्हें व्यर्थ-सा जान पड़ता था। कचहरी जाते, मगर मुकदमों की पैरवी करने के लिए नहीं, केवल दिल बहलाने के लिए घंटे-दो-घंटे में वहां से उतर कर चले आते। खाने बैठते तो कौर मुँह में न जाता। निर्मला अच्छी-से-अच्छी चीजें पकाती पर मुंशीजी दो-चार कौर से अधिक न खा सकते। ऐसा जान पड़ता कि कौर मुँह से निकला आता है! मंसाराम के कमरे की ओर जाते ही उनका हृदय टूक-टूक हो जाता था।

जहाँ उनकी आशाओं का दीपक जलता रहता था, वहाँ अब अन्धकार छाया हुआ था। उनके दो पुत्र अब भी थे, लेकिन जब दूध देती हुई गाय मर गयी तो बछिया का क्या भरोसा? जब फलने-फूलनेवाला वृक्ष गिर पड़ा, नन्हें-नन्हें पौधों से क्या आशा? यों तो जवान-बूढ़े सभी मरते हैं, लेकिन दु:ख इस बात का था कि उन्होंने स्वयं लड़के की जान ली। जिस दम बात याद आ जाती, तो ऐसा मालूम होता था उनकी छाती फट जायगी-मानों हृदय बाहर निकल पड़ेगा।

निर्मला को पति से सच्ची सहानभूति थी। जहाँ तक हो सकता था, वह उनको प्रसन्न रखने का फिक्र रखती थी और भूलकर भी पिछली बातें जबान पर न लाती थी। मुंशीजी उससे मंसाराम की कोई चर्चा करते शरमाते थे। उनकी कभी-कभी ऐसी इच्छा होती कि एक बार निर्मला से अपने मन के सारे भाव खोलकर कह दूँ, लेकिन लज्जा जबान रोक लेती थी। इस भाँति उन्हें वह सांत्वना भी न मिलती थी, जो अपनी व्यथा कह डालने से- दूसरों को अपने गम में शरीक कर लेने से-प्राप्त होती है। मवाद बाहर न निकलकर अन्दर-ही-अन्दर अपना विष फैलाता जाता था- दिन-दिन देह घुलती जाती थी।

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