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निर्मला (उपन्यास)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :304
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8556
आईएसबीएन :978-1-61301-175

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अद्भुत कथाशिल्पी प्रेमचंद की कृति ‘निर्मला’ दहेज प्रथा की पृष्ठभूमि में भारतीय नारी की विवशताओं का चित्रण करने वाला एक सशक्तम उपन्यास है…


इधर कुछ दिनों से मुंशीजी और उन डॉ. साहब में जिन्होंने मंसाराम की दवा की थी, याराना हो गया था। बेचारे कभी-कभी आकर मुंशीजी को समझाया करते, कभी-कभी अपने साथ हवा खिलाने के लिए खींच ले जाते। उनकी स्त्री भी दो-चार बार निर्मला से मिलने आयी थी। निर्मला भी कई बार उनके घर गई थी, मगर वहाँ से जब लौटती तो कई दिन तक उदास रहती। उस दम्पति का सुखमय जीवन देखकर उसे अपनी दशा पर दु:ख हुए बिना न रहता था। डॉ. साहब को कुल २००/- मिलते थे। पर इतने में ही दोनों आनन्द से जीवन व्यातीत करते थे। घर में केवल एक महरी थी, गृहस्थी का बहुत-सा काम स्त्री को अपने हाथों करना पड़ता था। गहने भी उसकी देह पर बहुत कम थे पर उन दोनों में वह प्रेम था, जो धन की तृण के बराबर पर्वाह नहीं करता।

पुरुष को देखकर स्त्री का चेहरा खिल उठता था। स्त्री को देखकर पुरुष निहाल हो जाता था। निर्मला के घर में धन इससे कहीं अधिक था-आभूषणों से उसकी देह फटी पड़ती थी-घर का कोई काम उसे अपने हाथों से न करना पड़ता था, पर निर्मला सम्पन्न होने पर भी अधिक दुखी थी। और सुधा विपन्न होने पर भी सुखी। सुधा के पास कोई ऐसी वस्तु थी, जो निर्मला के पास नहीं थी, जिसके सामने उसे अपना वैभव तुच्छ जान पड़ता था। यहाँ तक की वह सुधा के घर गहने पहन कर जाते शरमाती थी।

एक दिन निर्मला डॉ. साहब के घर आई, तो उसे बहुत उदास देखकर सुधा ने पूछा-बहिन! आज बहुत उदास हो वकील साहब की तबीयत तो अच्छी है, न?

निर्मला–क्या कहूँ, सुधा? उनकी दशा दिन-दिन खराब होती जाती है-कुछ कहते नहीं बनता। न जाने ईश्वर को क्या मंजूर है?

सुधा–हमारे बाबूजी तो कहते हैं कि उन्हें कहीं जलवायु बदलने के लिए जाना जरूरी है, नहीं तो कोई भयंकर रोग खड़ा हो जायेगा। कई बार वकील साहब से कह चुके हैं; पर वह यही कह दिया करते हैं कि मैं तो बहुत अच्छी तरह हूँ-मुझे कोई शिकायत नहीं। आज तुम कहना।

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