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पाँच फूल (कहानियाँ)

प्रेमचन्द

प्रकाशक : भारतीय साहित्य संग्रह प्रकाशित वर्ष : 2014
पृष्ठ :113
मुखपृष्ठ : ई-पुस्तक
पुस्तक क्रमांक : 8564
आईएसबीएन :978-1-61301-105

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प्रेमचन्द की पाँच कहानियाँ


प्रातः काल हम लोग एक तालाब के पास पहुँचे। तालाब बड़े-बड़े पहाड़ों से घिरा हुआ था। उसका पानी बड़ा निर्मल था और जंगली पेड़ इधर-उधर उग रहे थे। तालाब के पास पहुँचकर हम सब लोग ठहरे। बुड्ढे ने जो वास्तव में उस गिरोह का सरदार था, मुझे पत्थर पर डाल दिया। मेरी कमर में बड़ी जोर से चोट लगी। ऐसा मालूम हुआ कि कोई हड्डी टूट गई है, लेकिन ईश्वर की कृपा से कोई हड्डी टूटी न थी। सरदार ने मुझे पृथ्वी पर डालने के बाद कहा—क्यों, कितना रुपया दिलायेगा?

मैंने अपनी वेदना दबाते हुए कहा—पाँच सौ रूपये।

सरदार ने मुँह बिगाड़कर कहा—नहीं, इतना कम नहीं लेना। दो हजार से एक पैसा भी कम मिला तो तुम्हारी जान की खैर नहीं।

मैंने कुछ सोचते हुए कहा—सरकार, इतना रुपया काले आदमी के लिए नहीं खर्च करेगी।

सरदार ने छूरा बाहर निकालते हुए कहा—तब फिर क्यों कहा था कि सरकार इनाम देगी! ले, तो फिर यहीं, मर।

सरदार छुरा लिये मेरी तरफ बढ़ा।

मैं चकरा कर बोला—अच्छा सरदार, मैं तुमको दो हजार दिलवा दूँगा।

सरदार रुक गया और बड़ी जोर से हँसा। उसकी हँसी की प्रतिध्वनि ने निर्जीव पहाड़ों को भी कँपा दिया। मैंने मन-ही-मन कहा बड़ा भयानक आदमी है।

गिरोह के दूसरे आदमी अपनी-अपनी लूट का माल सरदार के सामने रखने लगे। उसमें कई बंदूकें, कारतूस, रोटियाँ और कपड़े थे। मेरी भी तलाशी ली गयी। मेरे पास एक छः फायर का तमंचा था। तमंचा पाकर सरदार उछल पड़ा और उसे फिरा-फिरा कर देखने लगा। वहीं पर उसी समय हिस्सा-बाँट शुरू हो गया। बराबर-बराबर का हिस्सा लगा, लेकिन मेरा रिवाल्वर उसमें नहीं शामिल किया गया। वह सरदार साहब की खास चीज थी।

थोड़ी देर विश्राम करने के बाद फिर यात्रा शुरू हुई। इस बार मेरे पैर खोल दिये गये और साथ-साथ चलने को कहा। मेरी आँखों पर पट्टी भी बाँध दी गई, ताकि मैं रास्ता न देख सकूँ। मेरे हाँथ रस्सी से बँधे हुए थे, और उसका सिरा एक अफ्रीदी के हाथ में था।

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