उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘इतना कुछ मैं अपने पिताजी से नहीं माँग सकता।’’
‘‘विष्णु की घटना के पश्चात् मेरा नानाजी से बात कहने का साहस नहीं हो रहा। मैं अपने पिताजी को पूर्ण परिस्थिति से अवगत किये दे रहा हूँ और उसके उत्तर की प्रतीक्षा में हूँ।
‘‘आज लखनऊ में वर्षारम्भ हो गयी है। अब तो आप लखनऊ वापस आने का विचार कर रही होंगी। कॉलेज खुलने में भी पन्द्रह दिन रह गये हैं।’’
इस पत्र का उत्तर बहुत ही संक्षेप में आया। उसमें लिखा था, ‘‘भाई साहब! आप मेडिकल कॉलेज में भरती होने का निर्णय कर लीजिये। खर्चे का प्रबन्ध हो ही जायेगा। विष्णु भैया को भी बम्बई से लौटने का खर्चा मिल ही गया है और आपको भी शिक्षा पूर्ण करने को मिल जायेगा। आपको विश्वास रखना चाहिये कि इस संसार में एक भगवान् नाम की शक्ति भी है और वह अधिकारी की सहायता करता है। आप अधिकारी बनने का यत्न करते रहिये।
‘‘मैं तो यह मानती हूँ–निर्बल के बल राम।’’
इस पत्र से इन्द्रनारायण के मन में विभिन्न प्रकार के उद्गार उत्पन्न हुए। वह परमात्मा में आस्था छोड़ बैठा था। इससे वह एक पढ़ी-लिखी समझदार लड़की को ‘निर्बल के बल राम’ का पद लिखते देख विस्मय करता रहा। वह रजनी के कथन को युक्तियुक्त भी नहीं समझता था। वह कहता था कि निर्बल को शक्ति देने वाला, अनधिकारी को फल देने वाला, न्यायकर्ता भला कैसे हो गया?
अभी वह नानाजी के घर में ही रह रहा था और पिताजी के उत्तर की प्रतीक्षा में था।
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