उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
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इन्द्रनारायण की नानी तो चाहती थी कि नाती को पढ़ने का अवसर मिले। उसने इन्द्र को पृथक् बिठाकर हर प्रकार के खर्चे का अनुमान लगाया था। उसको इतना अधिक खर्चा होने की आशा नहीं थी। कॉलेज का खर्चा सौ रुपये मासिक के बजाय उसके विचार में साठ-सत्तर में हो जायेगा। बोर्डिंग हाउस में रहने की कोई आवश्यकता नहीं। वह घर ही रह सकता है। शेष खर्चा वह अपनी छात्रवृत्ति में से कर सकेगा। ऐसा विचार और समझ उसने अपने पति को बताया, ‘‘इन्द्र मेडिकल कॉलेज में भरती होगा।’’
‘‘तो ठीक बात है। मुझको इससे प्रसन्नता होगी।’’
‘‘आप उसको कितनी सहायता दे सकेंगे?’’
‘‘मैं अब उसको और अधिक सहायता नहीं दे सकूँगा।’’
‘‘पहले आप क्या दिया करते थे?’’
‘‘रोटी और निवास-स्थान। पॉकेट-खर्च के लिये भी उसको, जब वह चाहता था, मिल जाता था।’’
‘‘इतना कुछ तो वह न भी पढ़ता होता तो भी पा सकता था। लखनऊ में रहते हुए क्या वह किसी अन्य के घर जाकर रहता?’’
‘‘तो मैंने क्या जीवन-भर उसको रोटी खिलाने का ठेका ले रखा है?’’
‘‘जीवन-भर का नहीं। उसके योग्य और सज्ञात होने तक का तो है ही। यह पितृ-ऋण तो उतारना ही होगा।’’
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