उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘सौभाग्यवती का उसकी माँ की इच्छानुकूल विवाह कर मैं उऋण हो चुका हूँ। तुमने ही उसको एक गाँव के पुजारी के घर विवाहने का हठ किया था। उसके लिये तो यहाँ लखनऊ में अच्छे-अच्छे सम्बन्ध आ रहे थे।
‘‘मैंने हठ किया था तो मुझको उसका पश्चात्ताप नहीं। लड़की सुखी है। उसका घर धन-धान्य से परिपूर्ण है। इसके विपरीत साधना का संबंध आपने किया था। वर्ष में नौ मास हमारे घर में रहती है। एक बच्चा और उसका घर वाला है। वे भी यहीं जुटे रहते हैं। सौभाग्यवती और साधना की क्या तुलना?’’
‘‘इस पर भी वह बात तो समाप्त हुई। अब तो प्रश्न इन्द्र का है। उसके पिता ने आपके कहने पर उसको कॉलेज में भरती करवाया था। अब बीच में छोड़ देना तो ठीक नहीं।’’
‘‘तब की बात दूसरी थी। विष्णु उसके साथ पढ़ता था। मेरा विचार था कि दोनों मिलकर पढ़ेंगे तो विष्णु की नौका भी पार लग जायेगी। परन्तु वह उसको मंझधार में छोड़कर निकल गया। इससे मेरी उसमें रुचि नहीं रही।’’
‘‘यह खूब रही। आप क्यों नहीं कहते कि विष्णु नालायक निकला है। नदी में तैरते-तैरते नदी की मछलियाँ पकड़ने में लग गया था। मछली तो पकड़ नहीं गयी, हाँ बीच में ही रह गया है।’’
शिवदत्त इस अलंकार को सुन हँस पड़ा। हँसकर उसने कहा, ‘‘पहले इसको नदी से निकालूँगा, पीछे किसी अन्य की ओर ध्यान दूँगा।’’
‘‘आपको इन्द्र की ओर ध्यान देने की आवश्यकता नहीं। ध्यान मैं दे लूँगी। उसके भोजन-वस्त्र का ही तो ध्यान करना है। आप उसके कॉलेज की फीस का प्रबन्ध कर दें।’’
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