उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘जी हाँ। पहले साधना से फिर अपना एक विश्वस्त आदमी आपके गाँव में भेजकर।’’
रामाधार का चित्त वैद्यजी को अपने लड़के के विवाह के लिये इतनी सावधानी से प्रबन्ध करते देख बहुत प्रसन्न हुआ। उनके मन पर ज्ञानेन्द्रदत्त के विषय में बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा।
‘‘तो आपके उस विश्वस्त आदमी ने लड़की को भी देखा है क्या?’’
‘‘जी हाँ। न केवल उसको देखा है, प्रत्युत् उसके वाल्मीकि रामायण का पाठ करते भी सुन आया है।’’
‘‘ओह!’’ सौभाग्यवती के मुख से निकल गया, ‘‘वह कोई स्त्री थी क्या?’’
‘‘हाँ, मेरी धर्मपत्नी अर्थात् लड़के की माँ। उसके मन में लड़की के विषय में बहुत अच्छे विचार बन गये हैं।’’
सौभाग्यवती को स्मरण हो आया। एक दिन उनके गाँव की एक पड़ोसिन अपने साथ एक प्रौढ़ावस्था की स्त्री को लेकर आयी थी और कहने लगी थी–‘‘पण्डितायिन! यह मेरी परम सखी है। यह ब्राह्मणी है और बनियों के घर का नहीं खाती। इससे मैं इसको यहाँ ले आई हूँ।’’
नाम-धाम पूछा गया तो उस औरत ने बताया, ‘‘मैं सीतापुर की रहने वाली हूँ। यह नन्दिनी और मैं इकट्ठी खेली हैं। इसके कई बार पत्र आ चुके थे। हमारे पण्डितजी बहुत ही परहेज रखने वाले हैं, सो हम सरजूपारी बनियों के घर का पका नहीं खाते। मैं तो ‘सीधा’ ले स्वयं बनाना चाहती थी, परन्तु यह बोली कि इसकी एक अन्य सहेली ब्राह्मणी है। यह उसका परिचय कराने ले आई है। इसका कहना है कि आपके घर का तो खा सकूँगी। इस प्रकार मैंने मन में विचार किया, ‘एक पन्थ दो काज’। भोजन बिना चूल्हा फूँके मिलेगा और साथ ही नयी बहन बन जायेगी।’’
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