उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
वह सौभाग्यवती की बहन बन गयी थी और तीन दिन तक गाँव में रही थी। तीनों दिन सौभाग्यवती के घर, राधा के हाथ का बना भोजन खाती रहती थी। राधा के मुख से रामायण सुन वह उससे बहुत स्नेह भी करने लगी थी।
अब सौभाग्यवती ने जब सुना कि वह लड़के के लिए बहू देखने गयी थी तो विस्मय में मुख देखती रह गयी। पंडित ज्ञानेन्द्र ने सौभाग्यवती को विस्मय में देखकर कहा, ‘‘तो पहले आपकी सखी से आपको मिलाना चाहिये।’’
‘‘हाँ, बहन शर्मिष्ठा से तो मिलूँगा ही।’’
‘‘और उसके हाथ की बनी हुई पूरी भी खायेंगी न?’’
‘‘यह तो विचारणीय है। इस विषय में अभी कुछ नहीं कह सकती।’’
वैद्यजी ने अपने बड़े लड़के की ओर देखा तो वह भीतर जा अपनी माँ, साधना और पत्नी को बुला लाया। उनको वहीं बैठक में बिठाकर अपने पिता से पूछने लगा, ‘‘पिताजी! महेन्द्र को बिला लाऊँ?’’
‘‘हाँ, इक्के पर चले जाओ और शीघ्र ही लौट आना।’’
पंडित ज्ञानेन्द्र की पत्नी शर्मिष्ठा सौभाग्यवती से गले मिली और बोली, ‘‘लड़के के विषय में बात तो पीछे करेंगे, पहले भोजन करना होगा।’’
‘‘नहीं, बहन! नहीं। आज हम जिस निमित्त आये हैं, वह हमारे यहाँ भोजन करने में बाधक है।’’
बहुत आग्रह किया गया और उतने ही बल से इन्कार किया गया। बात रामाधार ने बदल दी। उसने कहा, ‘‘एक बात मुझको समझ नहीं आ रही। आप आयुर्वेद रूपी निधि के रखते हुए अपने लड़के को नौकरी के दलदल में क्यों ले गये?’’
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