उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
पण्डित ज्ञानेन्द्रदत्त ने हँसते हुए कहा, ‘‘मैं आपसे पूछता हूँ कि आप एक पवित्र कार्य, ऋषि-ऋण को उतारने के स्थान अपने इतने योग्य-धीमान लड़के को म्लेच्छ-विद्या सिखाने के लिए क्यों प्रवृत्त कर बैठे हैं? कदाचित् हम दोनों का, इस स्वभाव-विरुद्ध बात करने में, कारण समान ही है।
‘‘आज विदेशी राज्य में आयुर्वेद की महिमा कम हो रही है। इसी प्रकार आज पुरोहित के कार्य की प्रतिष्ठा भी क्षीण हो रही है। अतः हम दोनों ने अपनी एक-एक सन्तान धन कमाने के लिए लोक-धर्म के पालन में लगा दी है और शेष सन्तान को ऋषि-ऋण चुकाने में लगा रखा है। विचार यह है कि लोक-धर्म का पालन करने वाला पैतृक उत्तराधिकारी की श्रृंखला अटूट रखने वालों की संसार में सहायता करेंगे।
‘‘परन्तु यह मैट्रिक पास पचपन रुपये मासिक आय करने वाला भला क्या किसी की सहायता कर सकेगा?’’
‘‘मैं तो चाहता था कि महेन्द्र एम० ए० कर किसी कॉलेज में प्रोफेसर बन सकता, परन्तु उसकी योजना तो कुछ और ही है। यह वह स्वयं आपको बता देगा।’’
इन्द्रनारायण के मन पर वैद्यजी के परिवार को एक योजना के अनुसार चलाने का बहुत प्रभाव पड़ा। वह विचार करने लगा था कि क्या यह योजना चल सकेगी?
मेहमानों को इस प्रकार की बातों पर विस्मय करते देख, ज्ञानेन्द्र ने मन की बात आगे कह दी। उसने कहा–‘‘मैं तो एक योजनानुसार कार्य कर रहा हूँ। वह योजना बता दी है। शेष सब भगवान् के हाथ में है।’’
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