उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘तुम कदाचित् मेरे पारिवारिक जीवन की बात नहीं जानतीं। हमारा दाम्पत्य-जीवन अति फीका है। वे प्रायः दौरे पर रहते हैं। मुझको ऐसा प्रतीत होता है कि उसके दौरे अपने दफ्तर के कार्य के अतिरिक्त वासना पूर्ति के अर्थ भी हुआ करते हैं। मुझको किसी ने बताया है कि इस कमिश्नरी के प्रत्येक नगर में उनकी एक-एक प्रेमिका रहती है। ऐसी अवस्था में मेरे एक लड़का हुआ है बस। वास्तव में हमारा मिलन ही नहीं होता। इस पर भी मैं उनसे झगड़ती नहीं। जहाँ वे अपने स्वतन्त्र जीवन में ही लीन रहती हूं।
‘‘जब वे घर आते हैं तो मैं उसे प्रसन्न रहती हूँ और उनके भोजन, वस्त्रादि की व्यवस्था कर देती हूँ। वे मुझको अपना पूर्ण वेतन दे देते हैं और मैं उसमें उनके भोजन, वस्त्र, निवास तथा अपने लड़के की शिक्षा-दीक्षा का प्रबन्ध कर लेती हूँ। मेरा अधिकांश समय पूजा-पाठ और पढ़ने-लिखने में व्यतीत होता है और उनका समय दफ्तर के काम में और इन्द्रिय-सुख-भोग में। हमने परस्पर यह निश्चय कर रखा है कि जब तक हम एक-दूसरे की स्वतन्त्रता में बाधक नहीं होते तब तक हम स्वेच्छा से रह सकते हैं। ऐसा लगभग ग्यारह वर्ष से चल रहा है।’’
‘‘रजनी! मैं तो इसी को जीवन का सार समझती हूँ। साथ ही आनन्द प्राप्त करने का यही एक मार्ग है।’’
‘‘और तुम संतुष्ट हो अपने जीवन से?’’
‘‘ऐसे जीवन के आरम्भ में तो कष्ट प्रतीत होता था, परन्तु अब मैंने अपने को ऐसे जीवन के लिए अभ्यस्त कर लिया है। इससे इस जीवन में भी एक मधुरता प्रतीत होने लगी है। वह मधुरता दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है।’’
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