उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
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इसके एक सप्ताह के भीतर ही शर्मिष्ठादेवी और शिवकुमार दुरैया में जा पहुँचे। रामाधार मकान के बाहर चौपाल पर बैठा किसी का जन्म-पत्र देख रहा था। दूसरे गाँव का एक महाजन रामजियवान, पण्डितजी के सामने चटाई पर बैठा उत्सुकता से उनका मुख देख रहा था। इस समय माँ-पुत्र दोनों, रामाधार के सामने आकर खड़े हो गए।
रामाधार ने उनको चौपाल पर चढ़ते देखा, तो विस्मय में उनका मुख देखने लगा। वह उठा और हाथ जोड़, नमस्कार कर, प्रश्न-भरी दृष्टि से उनकी ओर देखने लगा। इस पर शिवकुमार ने कहा, ‘‘आपसे कुछ काम है। हम यहीं बैठते हैं।’’ उसने तब रामजियावन की ओर संकेत कर कहा, ‘‘आप इनसे अवकाश प्राप्त कर लें।’’
इस समय तक रामाधार ने अपने कर्तव्य का निश्चय कर लिया था। उसने शर्मिष्ठादेवी को कहा, ‘‘बहन जी! आप तो भीतर चलिए। इन्द्र की माता और बहू भीतर ही हैं। तब तक मैं इनसे बात कर लूँ।’’
‘‘शर्मिष्ठादेवी चौपाल से उतरकर भीतर चली गई। रामाधार ने शिवकुमार को अपने समीप बिठा लिया और रामजियावन को उसके पत्रे में देख-देखकर बताने लगा। उसने कहा, ‘‘लड़की की कुण्डली से लड़के का टेवा ठीक मिल गया है। यह विवाह सफल होगा। लड़की दीर्घ जीवन पाएगी और सुहागवती रहेगी। पुत्र-पौत्रों से अलंकृत हो स्वर्गारोहण करेगी।’’
‘‘तो आपकी सम्मति है कि मान जाऊँ?’’
‘‘रामजियावन! मेरी सम्मति कुछ नहीं। यह तो इस पत्रे की सम्मति है। यदि तुमको विश्वास हो तो मान जाओ।’’
‘‘तो पण्डितजी!’’ रामजियावन ने पूछा, ‘‘आपका विश्वास पत्रे पर नहीं रहा?’’
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