उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
‘‘आज तो यह हमारे ही घर चलेगा। कल आपके घर आ जाएगा।’’
पद्मावती अपने पति का निमंत्रण सुनकर मुस्करा रही थी। उसने केवल इतना कह दिया, ‘‘अब हमने म्यूजियम रोड पर एक बड़ी-सी कोठी ले ली है। इसलिए मैं तुमको वहाँ ले चलने आऊँगी।’’
रायसाहब रमेशचन्द्र सिन्हा कोठी पर ही था। जब इन्द्रनारायण अपने परिवार के सदस्यों सहित वहाँ पहुँचा तो उसने झुककर रायसाहब के चरण स्पर्श कर लिए। रायसाहब ने उसको बाँहों से पकड़कर गले लगा लिया।
अपने पास कुर्सी पर बिठाकर रमेशचन्द्र ने कहा, ‘‘देखो इन्द्र! आज से साढ़े सात वर्ष पहले जब तुम इस कोठी में रहने के लिए आए थे, उसी समय, मैं आज का यह चित्र अपने मन में बनाये था। आज वह चित्र ठीक ही सिद्ध हुआ है। मैं बहुत प्रसन्न हूँ कि तुम्हारी इस तपस्या में मेरा भी कुछ योगदान हो सका। मैं ऐसे ही अनुभव करता हूँ जैसे शान्ति ही पढ़कर लौट रहा हूँ।’’
‘‘पिताजी! आप देखेंगे कि यह अनुभव की बात नहीं, प्रत्युत् वास्तविक बात यही है। मैं आपका पुत्र ही हूँ।’’
रमेशचन्द्र ने रामाधार की ओर देखते हुए कहा, ‘‘आपके लिए तो यह सौदा महँगा ही रहेगा।’’
‘‘हम तो सात वर्ष से ही इन्द्र को आपकी गोद में दे चुके हैं। हम देहाती इसके जन्मदाता अवश्य हैं, परन्तु इसके माता-पिता का कर्त्तव्यपालन करने में अयोग्य रहे हैं।’’
रामाधार और उसके परिवार के सब प्राणी वहीं कोठी में रहे। रमाकान्त का विवाह भी हो चुका था। उसकी बहू भी साथ थी।
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