उपन्यास >> पाणिग्रहण पाणिग्रहणगुरुदत्त
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संस्कारों से सनातन धर्मानुयायी और शिक्षा-दीक्षा तथा संगत का प्रभाव
जब इन्द्रनारायण अपने पुराने कमरे में पहुँचा तो रमाकान्त अपनी पत्नी को लेकर वहाँ आ गया। ‘‘दादा! यह देखो, यह नया जीव परिवार में सम्मिलित हो चुका है।’’
‘‘हाँ, पिताजी ने अपने पत्र में लिखा था।’’
रमाकान्त की बहू सुनीला ने पाँव छूने के लिए हाथ बढ़ाए तो इन्द्र एक पग पीछे हो गया। पीछे होकर कहने लगा, ‘‘नहीं बहू! अब जमाना बदल गया है। पिछली पीढ़ी में यह व्यवहार ठीक है। हम तो वर्तमान जीव हैं न? सामने कुर्सी पर बैठ जाओ।’’
सुनीला खड़ी रही। वह घूँघट निकाले हुए थी। रमाकान्त ने उसको कंधे से पकड़कर शारदा के समीप बिठा दिया और इन्द्र से पूछने लगा, ‘‘दादा! कैसा लगा है यूरोप?’’
‘‘बहुत सुन्दर, बहुत सभ्य, अति शिक्षित और अतुल शक्ति-सम्पन्न।’’
‘‘सुना है वहाँ के लोग आत्मा-रहित हैं?’’
‘‘क्या मतलब?’’
‘‘वहाँ शरीर ही स्वयं कार्यकर्ता माना जाता है?’’
‘‘हाँ, हमको कॉलेज में पढ़ाया जाता है कि शरीर में मस्तिष्क ही सब कार्य करता है। यह प्रकृति तथा शरीर का एक अंग है।’’
‘‘इसीलिए पूछ रहा था कि क्या वहाँ के लोग आत्मा-रहित हैं?’’
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